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________________ १३६ .... जैन दर्शन और संस्कृति ४. मोह-कर्म के उदय से जीव मिथ्यादृष्टि और चारित्रहीन बनता है। इसके पाँच परिणाम हैं—सम्यक्त्व-वेदनीय, मिथ्यात्व-वेदनीय, सम्यक्-मिथ्यात्व-वेटनीय, कषाय-वेदनीय, नोकषाय-वेदनीय । ५. आयु-कर्म के उदय से जीव अमुक समय तक अमुक प्रकार का जं बन जीता है। इसके अनुभाव (परिणाम). चार हैं-नैरयिकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु। ६. शुभ नामकर्म के उदय से जीव शारीरिक और वाचिक उत्कर्ष पाता है। इसके अनुभाव चौदह हैं-इष्ट शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, गति, स्थिति, लावण्य, यश-कीर्ति, उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम तथा मनोज्ञ स्वरता । अशुभ नामकर्म के उदय से जीव शारीरिक और वाचिक अपकर्ष पाता है। इसके अनुभाव चौदह हैं—अनिष्ट शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, गति, स्थिति, लावण्य यशो-कीर्ति, उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम और अमनोज्ञ स्वरता। ७. उच्च गोत्र-कर्म के उदय से जीव विशिष्ट बनता है। इसके अनुभाव आठ हैं—जाति, कुल, बल, रूप, तप, लाभ और ऐश्वर्य-इन आठों की . विशिष्टता। नीच-गोत्र-कर्म के उदय से जीव हीन बनता है। इसके अनुभाव आठ हैं— उपर्युक्त आठ की विहीनता। ८. अन्तराय कर्म के उदय से आत्म-शक्ति का प्रतिघात होता है। इसके अनुभाव पाँच हैं-दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अन्तराय (प्रतिघात)। फल की प्रक्रिया . कर्म जड़-अचेतन है, तब वह जीव को नियमित फल कैसे दे सकता है? यह प्रश्न न्याय-दर्शन के प्रणेता गौतम ऋषि के 'ईश्वर' के अभ्युपगम का हेतु बना। इसीलिए उन्होंने ईश्वर को कर्म-फल का नियन्ता बताया, जिसका उल्लेख कुछ पहले किया जा चुका है। जैन-दर्शन कर्म-फल का नियमन करने के लिए ईश्वर को आवश्यक नहीं समझता। कर्म-परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम होता है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति, पुद्गल-परिणाम आदि उदयानुकूल सामग्री से विपाक-प्रदर्शन में समर्थ हो जीवात्मा के संस्कारों को विकृत करता है, उससे उनका फलोपभोग होता है। सही अर्थ में आत्मा अपने किये का अपने आप फल भोगता है, कर्म परमाणु सहकारी या सचेतक का कार्य करते हैं। विष और अमृत, अपथ्य और पथ्य भोजन को कुछ भी ज्ञान नहीं होता, फिर भी जीव का संयोग पा उनकी वैसी परिणति हो जाती है। विज्ञान के क्षेत्र में परमाणु की
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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