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मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता
१३५ भगवान्'कालोदयी !जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाक-शुद्ध (परिपक्व), उठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण विषयुक्त भोजन करता है, वह (भोजन) आपातभद्र (खाते समय अच्छा) होता है, किन्त ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों उसमें दुर्गन्ध पैदा होती है—वह परिणाम भद्र नहीं होता। कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य (अठारह प्रकार के पाप-कर्म) आपात-भद्र और परिणाम-विरस होते हैं। कालोदायी ! इस प्रकार पाप-कर्म पाप-विपाक वाले होते हैं?
कालोदायी-'भगवन् ! क्या जीवों के किए हुए कल्याण-कर्मों का परिपाक कल्याणकारी होता है?'
भगवान्-‘कालोदायी ! होता है।' कालोदायी—'भगवान् ! यह कैसे होता है।'
भगवान्—'कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाक-शुद्ध (परिपक्व), उठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण, औषध-मिश्रित भोजन करता है, वह आपात-भद्र नहीं लगता, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों उसमें सुरूपता, सुवर्णता और सुखानुभूति उत्पन्न होती है। वह परिणाम-भद्र होता है। कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात-विरति यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य-विरति आपातभद्र नहीं लगती, किन्तु परिणाम-भद्र होती है। कालोदायी ! इस प्रकार कल्याण-कर्म कल्याण-विपाक वाले होते हैं।' कर्म के उदय से क्या होता है?
१. ज्ञानावरण के उदय से जीव ज्ञातव्य विषय को नहीं जानता, जिज्ञासु होने पर भी नहीं जानता। जानकर भी नहीं जानता—पहले जानकर फिर नहीं जानता। उसका ज्ञान आवृत्त हो जाता है।
२. दर्शनावरण के उदय से जीव द्रष्टव्य विषय को नहीं देखता, देखने का इच्छुक होने पर भी नहीं देखता। उसका दर्शन आच्छन्न हो जाता है। निद्रा दर्शनावरण के उदय से आती है।
३. सातवेदनीय कर्म के उदय से जीव सुख की अनुभूति करता है। मनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श, मन:सुखता, दाक्-सुखता, काय-सुखता-ये इसके उदय से प्राप्त होते हैं।
असातवेदनीय कर्म के उदय से जीव दुःख की अनुभूति करता है। इसके परिणामस्वरूप आठ बातें प्राप्त होती हैं-अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श, मनोदुःखता, वाक्-दुःखता, काय-दुःखता।