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जैन दर्शन और संस्कृति शुभ और अशुभ परिणाम आत्मा की क्रियात्मक शक्ति के प्रवाह हैं। ये अजस्र रहते हैं। दोनों एक साथ नहीं, एक अवश्य रहता है।
कर्म-शास्त्र की भाषा में शरीर-नाम-कर्म के उदय-काल में चंचलता रहती है। मानसिक वाचिक और शारीरिक क्रिया से आत्म-प्रदेशों में कम्पन होता है। उसके द्वारा कर्म-परमाणुओं का आकर्षण होता है। शुभ परिणति के समय शुभ
और अशुभ परिणति के समय अशुभ कर्म-परमाणुओं का आकर्षण होता है। कर्म कौन बांधता है?
अकर्म के कर्म का बन्ध नहीं होता। पूर्व-कर्म से बंधा हुआ जीव ही नये कर्मों का बन्ध करता है। मोह-कर्म के उदय से जीव राग-द्वेष में परिणत होता है तब वह अशुभ कर्मों का बंध करता है। मोह-रहित प्रवृत्ति करते समय शरीर-नाम-कर्म के उदय से जीव शुभ कर्म का बंध करता है। नये-बंधन का हेतु पूर्व-बन्धन न हो, तो अबद्ध (मुक्त) जीव भी कर्म से बंधे बिना नहीं रह सकता। इस दृष्टि से यह सही है कि बंधा हुआ ही बंधता है, नये सिरे से नहीं। कर्म-बंध कैसे?
गौतम-भगवान्! जीव कर्म-बंध कैसे करता है?
भगवान्–गौतम! ज्ञानावरण के तीव्र उदय से दर्शनावरण का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरण के तीव्र उदय से दर्शन-मोह का तीव्र उदय होता है। दर्शन-मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है। मिथ्यत्व के उदय से जीव के आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है।
कर्म-बंध का मुख्य हेतु कषाय है। संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं—राग और द्वेष । विस्तार में उसके चार भेद हैं—क्रोध, मान, माया, लोभ।
फल-विपाक
एक समय की बात है। भगवान् राजगृह के गुणशील नामक चैत्य में समवसृत थे। उस समय कालोदायी अनगार भगवान् के पास आयें। वन्दना-नमस्कार कर बोले-भगवान्! क्या जीवों के किये हुए पाप-कर्मों का परिपाक पापकारी होता है?
भगवान्—'कालोदायी ! होता है।' कालोदायी—'भगवान् ! यह कैसे होता है।'