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________________ मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता १३३ गोत्र कर्म के दो प्रकार हैं-उच्च गोत्र और नीच गोत्र। ये क्रमश: उच्चता । • और नीचता, सम्मान और असम्मान के निमित्त बनते हैं। इनके क्षय से आत्मा अगुरु-लघु-पूर्ण सम बन जाता है। आयुष्य कर्म चार प्रकार की गतियों में से किसी एक में जीव को जन्म दिलाता है। आयुष्य के दो प्रकार हैं-शुभ आयु और अशुभ आयु। ये क्रमश: देवत्व, मनुष्यत्व, नारकत्व, अमानुषत्व (पशुत्व) के निमित्त बनते हैं। इसके क्षय से आत्मा अ-मृत और अ-जन्मा बन जाता है। ___ चार अघात्य कर्म-परमाणुओं का विलय मुक्ति होने के समय एक साथ होता है। बन्ध की प्रक्रिया __ आत्मा में अनन्त वीर्य (सामर्थ्य) होता है, उसे लब्धि-वीर्य कहा जाता है। यह शुद्ध आत्मिक सामर्थ्य है। इसका बाह्य जगत् में कोई प्रयोग नहीं होता। आत्मा का बहिर्-जगत् के साथ जो सम्बन्ध है, उसका माध्यम शरीर है। वह पुद्गल-परमाणुओं का संगठित पुंज है। आत्मा और शरीर-इन दोनों के संयोग से जो-सामर्थ्य पैदा होता है उसे करण-वीर्य या क्रियात्मक शक्ति कहा जाता है। शरीरधारी जीव में यह सतत बनी रहती है। इसके द्वारा जीव में भावनात्मक या चैतन्य-प्रेरित क्रियात्मक कम्पन होता रहता है। कम्पन अचेतन वस्तुओं में भी होता है, किन्तु वह स्वाभाविक होता है। उनमें चैतन्य-प्रेरित कम्पन नहीं होता। चेतन में कम्पन का प्रेरक गूढ़ चैतन्य होता है। इसलिए इसके द्वारा विशेष स्थिति का निर्माण होता है। शरीर की आन्तरिक वर्गणा द्वारा निर्मित कम्पन में बाहरी पौद्गलिक धाराएं मिलकर आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा परिवर्तन करती रहती हैं। क्रियात्मक शक्त्ति-जनत कम्पन के द्वारा आत्मा और कर्म-परमाणुओं का संयोग करता है। इस प्रक्रिया को आस्रव कहा जाता है। आत्मा के साथ संयुक्त कर्म-योग्य परमाणु कर्म-रूप में परिवर्तित होते हैं। इस प्रक्रिया को बंध कहा जाता है। आत्मा और कर्म-परमाणुओं का फिर वियोग होता है। इस प्रक्रिया को निर्जरा कहा जाता है। बंध आस्रव और निर्जरा के बीच की स्थिति है। आस्रव के द्वारा बाहरी पौद्गलिक धाराएं शरीर में आती हैं। निर्जरा के द्वारा वे फिर शरीर के बाहर चली जाती हैं। कर्म-परमाणुओं के शरीर में आने और फिर से चले जाने के बीच की दशा को संक्षेप में बंध कहा जाता है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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