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जैन दर्शन और संस्कृति मिश्रण नहीं होता
___पुण्य और पाप के परमाणुओं के आकर्षण-हेतु अलग-अलग हैं। एक ही हेतु से दोनों के परमाणुओं का आकर्षण नहीं होता। आत्मा के परिणाम या तो शुभ होते हैं या अशुभ, किन्तु शुभ और अशुभ दोनों एक साथ नहीं होते। धर्म और पुण्य
जैन दर्शन में धर्म और पुण्य-ये दो पृथक् तत्त्व हैं। शाब्दिक दृष्टि से पुण्य शब्द धर्म के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, किन्तु तत्त्व-मीमांसा में ये कभी एक नहीं होते। धर्म आत्मा की राग-द्वेष-हीन परिणति है और पुण्य शुभकर्ममय पुद्गल. हैं। दूसरे शब्दों में-धर्म आत्मा की पर्याय है और पुण्य पुद्गल की पर्याय है।
दूसरी बात-निर्जरा-धर्म सत्क्रिया है और पुण्य उसका फल है।
तीसरी बात-धर्म आत्म-शुद्धि (आत्म-मुक्ति) का साधन है और पुण्य आत्मा के लिए बन्धन है।
- अधर्म और पाप की भी यही स्थिति है। वे दोनों धर्म और पुण्य के ठीक प्रतिपक्षी हैं। जैसे सत्प्रवृत्ति रूप धर्म के साहचर्य से पुण्य की उत्पत्ति होती है, वैसे अधर्म और पाप के साहचर्य से पाप की उत्पत्ति होती है। पुण्य पाप फल हैं—जीव की अच्छी या बुरी प्रवृत्ति से उनके साथ चिपटने वाले पुद्गल हैं और ये दोनों धर्म और अधर्म के लक्षण हैं।
___ जीव की क्रिया दो भागों में विभक्त होती है-धर्म या अधर्म, सत् या असत् । अधर्म से आत्मा के संस्कार विकृत होते हैं, पाप का बन्ध होता है। धर्म से आत्मा शुद्ध होती है और उसके साथ-साथ पुण्य का बन्ध होता है। पुण्य-पाप कर्म का ग्रहण होना या न होना आत्मा के अध्यवसाय-परिणाम पर निर्भर है। शुभयोग तपस्या-धर्म है और वही शुभयोग पुण्य का आस्रव है। पुरुषार्थ भाग्य को बदल सकता है
वर्तमान की दृष्टि से पुरुषार्थ अवंध्य (निष्फल) कभी नहीं होता। अतीत की दृष्टि से उसका महत्त्व है भी और नहीं भी। वर्तमान का पुरुषार्थ अतीत के पुरुषार्थ से दुर्बल होता है, तो वह अतीत के पुरुषार्थ को अन्यथा नहीं कर सकता। वर्तमान का पुरुषार्थ अतीत के पुरुषार्थ से प्रबल होता है, तो वह अतीत के पुरुषार्थ को अन्यथा भी कर सकता है।