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जैन दर्शन और संस्कृति या अन्यथा? धर्म करने वाला दुःखी और अधर्म करने वाला सुखी कैसे? आदि-आदि विषयों पर जैन ग्रन्थकारों ने विस्तृत विवेचन किया है। आत्मा का आंतरिक वातावरण
आत्मा की आंतरिक योग्यता की न्यूनाधिकता का कारण कर्म है। कर्म के संयोग से वह (आंतरिक योग्यता) आवृत होती है या विकृत होती है। कर्म के विलय (संयोग) से उसका स्वभावोदय होता है। बाहरी स्थिति आंतरिक स्थिति को उत्तेजित कर आत्मा पर प्रभाव डाल सकती है, पर सीधा प्रभाव नहीं डाल सकती। शुद्ध या कर्म-मुक्त आत्मा पर बाहरी परिस्थिति का कोई भी असर नहीं होता। अशुद्ध या कर्म-बद्ध आत्मा पर ही उसका प्रभाव होता है, वह भी अशुद्धि की मात्रा के अनुपात से। शुद्धि की मात्रा बढ़ती है, बाहरी वातावरण का असर कम होता है। शुद्धि की मात्रा कम होती है, बाहरी वातावरण छा जाता है। परिस्थिति ही प्रधान होती, तो शुद्ध और अशुद्ध पदार्थ पर समान असर होता, किन्तु ऐसा नहीं होता है। परिस्थिति उत्तेजक है, कारक नहीं।।
विजातीय सम्बन्ध विचारणा की दृष्टि से आत्मा के साथ सर्वाधिक घनिष्ठ सम्बन्ध कर्म-पदगलों का है। समीपवर्ती का जो प्रभाव पड़ता है, वह दरवर्ती का नहीं पड़ता। परिस्थिति दूरवर्ती घटना है। वह कर्म की उपेक्षा कर आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकती। उसकी पहुँच कर्म-संघटना तक ही है। उससे कर्म-संघटना प्रभावित होती है, फिर उससे आत्मा। जो परिस्थिति कर्म-संस्थान को प्रभावित न कर सके उसका आत्मा पर कोई असर नहीं होता।
बाहरी परिस्थिति सामूहिक होती है। कर्म को वैयक्तिक परिस्थिति कहा जा सकता है। यही कर्म को सत्ता का स्वयंभू-प्रमाण है। परिस्थिति
काल (time), क्षेत्र (space), स्वभाव (nature), पुरुषार्थ (effort), नियति (universal law) और कर्म की सह-स्थिति का नाम ही परिस्थिति है।
काल, क्षेत्र, स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति और कर्म से ही सब कुछ होता है. यह एकांगी दृष्टिकोण मिथ्या है।
काल क्षेत्र, स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति और कर्म से भी कुछ होता है, यह सापेक्ष दृष्टिकोण सत्य है।
वर्तमान के जन-मानस में काल-मर्यादा, क्षेत्र-मर्यादा, स्वभाव-मर्यादा, पुरुषार्थ-मर्यादा और नियति-मर्यादा का जैसा स्पष्ट विवेक या अनेकान्त-दर्शन है.