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________________ ८ मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता जगत्वैचित्र्य का हेतु भारत के सभी आस्तिक दर्शनों ने जीव जगत् की विभक्ति या विचित्रता को स्वीकार किया है । उसे सहेतुक माना है । उस हेतु को वेदान्ती 'अविद्या', बौद्ध 'वासना', सांख्य 'क्लेश' और न्याय-वैशेषिक 'अदृष्ट' तथा जैन 'कर्म' कहते हैं। कई दर्शन कर्म का सामान्य निर्देश मात्र करते हैं और कई उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करते-करते बहुत आगे बढ़ जाते हैं । न्याय - दर्शन के अनुसार अदृष्ट आत्मा का गुण है । अच्छे-बुरे कर्मों का आत्मा पर संस्कार पड़ता है, वह अदृष्ट । जब तक उसका फल नहीं मिल जाता, तब तक वह आत्मा के साथ रहता है, उसका फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है। कारण कि यदि ईश्वर कर्म-फल की व्यवस्था न करे, तो कर्म निष्फल हो जाएं। सांख्य कर्म को प्रकृति का विकार मानता है। अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है । उस प्रकृतिगत-संस्कार से ही कर्मों के फल मिलते हैं । बौद्धों ने चित्तगत वासना को कर्म माना है । यही कार्य कारण भाव के रूप में सुख-दुःख का हेतु बनता है । जैन-दर्शन कर्म को स्वतन्त्र तत्त्व मानता है। कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध हैं । वे समूचे लोक में जीवात्मा की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बंध जाते है, यह उनकी बध्यमान (बंध ) अवस्था है। बंधने के बाद वे तुरन्त फल न देकर पकते हैं यानी उनका परिपाक होता है, यह सत् (सत्ता) अवस्था है । परिपाक के बाद उनसे सुख-दुःख रूप तथा आवरण रूप फल मिलता है, वह उदयमान (उदय) अवस्था है । अन्य दर्शनों में कर्मों की क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध—ये तीन अवस्थाएं बताई गई हैं । वे ठीक क्रमशः बन्ध, सत् और उदय की समानार्थक हैं । क्या कर्म का फल शीघ्र मिल सकता है ? क्या कर्म की अवधि ( कालमान) या तीव्रातीव्रता में कमी-बेशी की जा सकती है ? क्या कर्मों का रूपान्तरण किया जा सकता है ? बन्ध के कारण क्या हैं? बंधे हुए कर्मों का फल निश्चित होता है या अनिश्चित ? कर्म जिस रूप में बंधते हैं, उस रूप में उनका फल मिलता है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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