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मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता
१२९ वैसा कर्म-मर्यादा का नहीं रहा है। जो कुछ होता है, वह कर्म से ही होता है—ऐसा घोष साधारण हो गया है। यह एकांतवाद सच नहीं है। आत्म-गुण का विकास कर्म से नहीं होता, कर्म के विलय (आत्मा के कर्म के दूर होने) से होता है। परिस्थितिवाद के एकांत आग्रह के प्रति जैन-दृष्टि यह है—रोग देश-काल की स्थिति से ही पैदा नहीं होता, किन्तु देश-काल की स्थिति से कर्म-उत्तेजना (उदीरणा) होती है और उत्तेजित कर्म-पुद्गल रोग पैदा करते हैं। इस प्रकार जितनी भी बाहरी परिस्थितियाँ हैं, वे सब कर्म-पुद्गलों में उत्तेजना लाती हैं। उत्तेजित कर्म-पुद्गल आत्मा में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन लाते हैं। परिवर्तन पदार्थ का स्वभाव-सिद्ध धर्म है। वह संयोग-कृत होता है, तब विभाव रूप होता है और यदि दूसरे के संयोग से नहीं होता, तब उसकी परिणति स्वाभाविक हो जाती है।
कर्म की पौद्गलिकता
अन्य दर्शन कर्म को जहाँ संस्कार या वासनारूप मानते हैं, वहाँ जैन दर्शन उसे पौद्गलिक मानता है। 'जिस वस्तु का जो गुण होता है, वह उसका विघातक नहीं बनता।' आत्मा का गुण उसके लिए आवरण, पारतन्त्रय और दुःख का हेतु कैसे बने?
कर्म जीवात्मा के आवरण, पारतन्त्रय और दुःखों का हेतु- है, गुणों का विघातक है। इसलिए वह आत्मा का गुण नहीं हो सकता।
बेड़ी से मुनष्य बंधता है। सुरापान से पागल बनता है। क्लोरोफार्म से बेभान बनता है। ये सब पौद्गलिक वस्तुएं हैं। ठीक उसी प्रकार कर्म के संयोग से भी आत्मा की ये दशाएं बनती हैं, इसीलिए वह भी पौद्गलिक है। ये बेड़ी आदि बाहरी बंधन अल्प सामर्थ्य वाली वस्तुएं हैं। कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए तथा अधिक सामर्थ्य वाले सूक्ष्म पुद्गल हैं। इसलिए बाहरी बेड़ी आदि बंधनों की तुलना में कर्म-परमाणुओं का जीवात्मा पर गहरा और आंतरिक प्रभाव पड़ता है।
शरीर पौद्गलिक है, उसका कारण कर्म है। इसलिए वह भी पौद्गलिक है। पौद्गलिक कार्य का समवायी कारण पौद्गलिक होता है। मिट्टी भौतिक है, तो उससे बनने वाला पदार्थ भौतिक ही होगा।
आहार आदि अनुकूल सामग्री से सुखानुभूति और शस्त्र-प्रहार आदि से दुःखानुभूति होती है। आहार और शस्त्र पौद्गलिक हैं, इसी प्रकार सुख-दुःख के हेतुभूत कर्म भी पौदगलिक हैं।