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- जैन दर्शन और संस्कृति स्थूल शरीर में वह प्रवेश नहीं करती, किन्तु सूक्ष्म-शरीरवान् होने के कारण स्वयं उसका निर्माण करती है। अचेतन के साथ उसका अभूतपूर्व सम्बन्ध नहीं होता; किन्तु अनादिकालीन प्रवाह में शरीर-पर्यायात्मक एक कड़ी और जुड़ जाती है। उसमें कोई विरोध नहीं आता। संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्म से बंधा हुआ है। वह कभी भी अपने रूप में स्थित नहीं, अतएव अमूर्त होने पर भी उसका मूर्त कर्म (अचेतन-द्रव्य) के साथ सम्बन्ध होने में कोई आपत्ति नहीं होती। आत्मा पर विज्ञान का प्रयोग
वैज्ञानिकों ने प्राकृतिक मूल तत्त्व की संख्या ९२ मानी है। इनके अलावा कृत्रिम विधियों से निर्मित तत्त्वों को मिलाकर यह संख्या लगभग १०६ तक चली जाती है। वे सब मूर्तिमान हैं। उन्होंने जितने प्रयोग किए हैं, वे सभी मूर्त द्रव्यों पर ही किए हैं। अमूर्त तत्त्व इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनता। उस पर प्रयोग भी नहीं किए जा सकते। आत्मा अमूर्त है, इसलिए आज वैज्ञानिक, भौतिक साधन-सम्पन्न होते हुए भी उसका पता नहीं लगा सके। किन्तु भौतिक साधनों से आत्मा का अस्तित्व नहीं जाना जाता, तो उसका नास्तित्व भी नहीं जाना जाता। शरीर पर किए गए विविध प्रयोगों से आत्मा की स्थिति स्पष्ट नहीं होती। रूस के जीव-विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान् पावलोफ ने एक कुत्ते का दिमाग निकाल लिया। उससे वह शून्यवत् हो गया। उसकी चेष्टाएं स्तब्ध हो गईं। वह अपने मालिक तथा खाद्य तक को नहीं पहचान पाता था। फिर भी वह मरा नहीं। इन्जेक्शनों द्वारा उसे खाद्य तत्त्व दिया जाता रहा। इस प्रयोग पर उन्होंने यह बताया कि दिमाग ही चेतना है। उसके निकल जाने पर प्राणी में कुछ भी चैतन्य नहीं रहता।
इस पर हमें अधिक कहने की कोई आवश्यकता नहीं। यहाँ सिर्फ इतना समझना ही पर्याप्त होगा कि दिमाग चेतना का उत्पादक नहीं, किन्तु वह मानस-प्रवृत्तियों के उपयोग का साधन है। दिमाग निकाल लेने पर उसकी मानसिक चेष्टाएं रुक गईं, इसका अर्थ यह नहीं कि उसकी चेतना विलीन हो गई। यदि ऐसा होता तो वह जीवित नहीं रह पाता। खाद्य-स्वीकरण, रक्त-संचार, प्राणापान आदि चेतनावान् प्राणी में ही होता है। बहुत सारे ऐसे भी प्राणी हैं, जिनके मस्तिष्क होता ही नहीं। वह केवल 'मानस-प्रवृत्ति वाले प्राणी के ही होता है। वनस्पति में भी आत्मा है। उनमें चेतना है; हर्ष, शोक, भय आदि प्रवृत्तियाँ हैं; पर उनके दिमाग नहीं होता। चेतना का सामान्य लक्षण स्वानुभव है। जिसमें स्वानुभूति होती है, सुख-दुःख का अनुभव करने की क्षमता होती है, वही आत्मा है। फिर चाहे वह अपनी अनुभूति व्यक्त कर सके या न कर सके, उसको व्यक्त