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________________ मैं कौन हूँ ? ११३ जैसे दार्शनिक चेतना को भौतिक तत्त्वों से अलग ही एक रहस्यमय वस्तु साबित करना चाहते हैं। ऐसा साबित करने में उनकी सबसे जबरदस्त युक्ति है ‘स्मृति' । मस्तिष्क शरीर का अंग होने से एक क्षणिक परिवर्तनशील वस्तु है। वह स्मृति को भूत से वर्तमान में लाने का वाहन नहीं बन सकता। इसके लिए किसी अक्षणिक स्थायी माध्यम की आवश्यकता है। इसे वह चेतना या आत्मा का नाम देते हैं। स्मृति को अतीत से वर्तमान और परे भी ले जाने की जरूरत है, लेकिन अमर चेतना का मरणधर्मा अचेतन से संबंध कैसे होता है-यह आसान समस्या नहीं है। चेतन और अचेतन इतने विरुद्ध द्रव्यों का एक दूसरे के साथ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करना तेल में पानी मिलाने जैसा है। इसलिए इस कठिनाई को दूर करने का तरीका ढूंढ़ा जा रहा है। इससे इतना साफ हो जाता है कि चेतना या स्मृति से ही हमारी समस्या हल नहीं हो सकती। तज्जीवतच्छरीरवादी वर्ग ने आत्मवादी पाश्चात्य दार्शनिकों की जिस कठिनाई को सामने रखकर सुख की सांस ली है, उस कठिनाई को भारतीय दार्शनिकों ने पहले से ही साफ कर अपना पथ प्रशस्त कर लिया था। संसार-दशा में आत्मा और शरीर—ये दोनों सर्वथा भिन्न नहीं होते। गौतम स्वामी के प्रश्नों का उत्तर देते हए भगवान महावीर ने आत्मा और शरीर का भेदा-भेद बतलाया है—“आत्मा शरीर से भिन्न भी है और अभिन्न भी। शरीर रूपी भी है और अरूपी भी तथा वह सचेतन भी है और अचेतन भी।” शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् अथवा अग्नि-लोह-पिण्डवत तादात्म्य होता है। यह आत्मा की संसारावस्था है। इसमें जीव और शरीर का कथंचित् (किसी एक अपेक्षा से) अभेद होता है। अतएव जीव के दस परिणाम होते हैं तथा इसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि पौद्गलिक गुण भी मिलते हैं। शरीर से आत्मा का कथंचित्-भेद होता है। इसलिए उसको अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श कहा जाता है। आत्मा और शरीर का भेदाभेद-स्वरूप जानने के पश्चात् 'अमर चेतना का मरण धर्मा अचेतन से सम्बन्ध कैसे होता है?'-यह प्रश्न कोई मूल्य नहीं रखना। विश्ववर्ती चेतन सभी पदार्थ परिणामी नित्य हैं। एकान्तिक रूप से कोई भी पदार्थ मरणधर्मा या अमर नहीं। आत्मा स्वयं नित्य भी है और अनित्य भी, सहेतुक भी है और निर्हेतुक भी। कर्म के कारण आत्मा की भिन्न-भिन्न अवस्थाएं होती हैं, इसलिए वह अनित्य और सहेतुक है तथा उसके स्वरूप का कभी प्रच्यव (विनाश) नहीं होता, इसलिए वह निन्य और निर्हेतुक है। शरीरस्थ आत्मा ही भौतिक पदार्थों से सम्बद्ध होती है, स्वरूपस्थ होने के बाद वह विशुद्ध चेतनावान् और सर्वथा अमूर्त बनती है, फिर उसका कभी अचेतन पदार्थ से संबंध नही होता। वद्ध आत्मा स्थूल-शरीर-युक्त होने पर भी सूक्ष्म-शरीर-युवत रहती है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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