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________________ ११२ जैन दर्शन और संस्कृति हैं । मस्तिष्क शरीर का अवयव है । उस पर विभिन्न प्रयोग करने पर मानसिक स्थिति में परिवर्तन पाया जाए, अर्ध-स्मरण या विस्मरण आदि मिले, यह कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं क्योंकि कारण के अभाव में कार्य अभिव्यक्त नहीं होता, यह निश्चित तथ्य हमारे सामने है । भौतिकवादी तो मस्तिष्क भी भौतिक है या और कुछ — इस समस्या में उलझे हुए हैं । वे कहते हैं “मन सिर्फ भौतिक तत्त्व नहीं है । ऐसा होने पर उसके विचित्र गुण - चेतन - क्रियाओं की व्याख्या नहीं हो सकती । मन (मस्तिष्क) में ऐसे नये गुण देखे जाते हैं, जो पहले भौतिक तत्त्वों में मौजूद न थे, इसलिए भौतिक तत्त्वों और मन को एक नहीं कहा जा सकता। साथ ही भौतिक तत्त्वों से मन इतना दूर भी नहीं है कि उसे बिलकुल ही एक अलग तत्त्व माना जाए। " इन पंक्तियों से यह समझा जाता है कि वैज्ञानिक जगत् मन के विषय में . ही नहीं, किन्तु मन के साधनभूत मस्तिष्क के बारे में भी कितना संदिग्ध है । मस्तिष्क को अतीत के प्रतिबिम्बों का वाहक और स्मृति का साधन मानकर स्वतंत्र चेतना का लोप नहीं किया जा सकता । मस्तिष्क फोटो के नेगेटिव प्लेट की भांति वर्तमान चित्रों को खींच सकता है, सुरक्षित रख सकता है, इस कल्पना के आधार पर उसे स्मृर्ति का साधन भले ही माना जाए, किन्तु इस स्थिति में वह भविष्य की कल्पना नहीं कर सकता । उसमें केवल घटनाएं अंकित हो सकती हैं, पर उसके पीछे छिपे हुए कारण स्वतन्त्र चेतनात्मक व्यक्ति का अस्तित्व मानें बिना नहीं जाने जा सकते। " यह क्यों ? यह है तो ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए, यह नहीं हो सकता, यह वही है, इसका परिणाम यह होगा " - इत्यादि ज्ञान की क्रियाएं अपना स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करती हैं। प्लेट की चित्रावली में नियमन होता है। प्रतिबिम्बित चित्र के अतिरिक्त उसमें और कुछ भी नहीं होता । यह नियम मानव-मन पर लागू नहीं होता । वह अतीत की धारणाओं के आधार पर बड़े-बड़े निष्कर्ष निकालता है, भविष्य का मार्ग निर्णीत करता है इसलिए इस दृष्टांत की भी मानस - क्रिया में संगति नहीं होती । तर्कशास्त्र और विज्ञान - शास्त्र अंकित प्रतिबिम्बों के परिणाम नहीं हैं । अदृष्टपूर्व और अश्रुतपूर्व वैज्ञानिक आविष्कार स्वतंत्र मानस की तर्कणा के कार्य हैं, किसी दृष्ट वस्तु के प्रतिबिम्ब नहीं । इसलिए हमें स्वतंत्र चेतना का अस्तित्व और उसका विकास मानना ही होगा । हम प्रत्यक्ष में आने वाली चेतना की विशिष्ट क्रियाओं की किसी भी तरह अवहेलना नहीं कर सकते । इसके अतिरिक्त भौतिकवादी वैज्ञानिक 'चेतन और अचेतन का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?' - इस प्रश्न के द्वारा बर्गसां की आत्म-साधक युक्ति को व्यर्थ प्रमाणित करना चाहते हैं । बर्गसां के सिद्धान्त की अपूर्णता का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि बर्गसां ' "
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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