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मैं कौन हूँ ? है। संगति से असंगति (ब्रह्म से जगत्) और असंगति से फिर संगति. की ओर गति क्यों होती है? यह उसे और अधिक जटिल बना देती है।
अमूर्त आत्मा के मूर्त शरीर के साथ सम्बन्ध की स्थिति जैन दर्शन के सामने वैसी ही उलझन भरी है, किन्तु वस्तुवृत्त्या वह उससे भिन्न है। जैन-दृष्टि के अनुसार अरूप का रूप-प्रणयन नहीं हो सकता। संसारी आत्माएं अरूप नहीं होती। उनका विशुद्ध रूप अमूर्त होता है, किन्तु संसार-दशा में उसकी प्राप्ति नहीं होती। उनकी अरूप-स्थिति मुक्त-दशा में बनती है। उसके बाद उनका सरूप के घात-प्रत्याघातों से कोई लगाव नहीं होता।
विज्ञान और आत्मा भौतिकवादी वैज्ञानिकों की समीक्षा __बहुत से पश्चिमी वैज्ञानिक आत्मा को मन से अलग नहीं मानते। उनकी दृष्टि में मन और मस्तिष्क क्रिया एक है। दूसरे शब्दों में मन और मस्तिष्क पर्यायवाची शब्द हैं। पावलोफ ने इसका समर्थन किया है कि स्मृति मस्तिष्क (cerebrum) की करोड़ों कोशिकाओं (cells) की क्रिया है। पावलोफ के सिद्धान्त को प्रवृत्तिवाद कहते हैं। उसका कहना है कि समस्त मानसिक क्रियाएं शारीरिक प्रवृत्ति के साथ होती हैं। मानसिक क्रिया और शारीरिक प्रवृत्ति अभिन्न ही है। बर्गसां जिस युक्ति के बल पर आत्मा के अस्तित्व की आवश्यकता अनुभव करता है, उसके मूलभूत तथ्य स्मृति को ‘पावलोफ' मस्तिष्क के कोशिकाओं की क्रिया बतलाता है। पोटो के नेगेटिव प्लेट में जिस प्रकार प्रतिबिम्ब खींचे हुए होते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क में अतीत के चित्र प्रतिबिम्बित रहते हैं। जब उन्हें तदनुकूल सामग्री द्वारा नई प्रेरणा मिलती है, तब वे जागृत हो जाते हैं, निम्न स्तर से ऊपरी स्तर में आ जाते हैं; इसी का नाम स्मृति है। इसके लिए भौतिक तत्त्वों से पृथक् अन्वयी आत्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं। भूताद्वैतवादी वैज्ञनिकों ने भौतिक प्रयोग के द्वारा अभौतिक सत्ता का नास्तित्व सिद्ध करने की बहुमुखी चेष्टाएं की हैं, फिर भी भौतिक प्रयोगों का क्षेत्र भौतिकता तक ही सीमित रहता है, अमूर्त आत्मा या मन का नास्तित्व सिद्ध करने में उसका अधिकार सम्पन्न नहीं होता।
मन भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार का होता है। मन, चिन्तन, तर्क, अनुमान, स्मृति 'तदेवेदम्' इस प्रकार संकलनात्मक ज्ञान–अतीत और वर्तमान ज्ञान की जोड़ करना, ये कार्य अभौतिक मन के हैं। भौतिक मन उसकी ज्ञानात्मक प्रवृत्ति का साधन है। इसे हम मस्तिष्क या 'औपचारिक ज्ञान-तंतु' भी कह सकते