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मैं कौन हूँ ?
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करने के साधन मिलें या न मिलें वाणी - विहीन प्राणी को प्रहार से कष्ट नहीं होता, यह मानना यौक्तिक नहीं। उसके पास बोलने का साधन नहीं, इसलिए अपना कष्ट कह नहीं सकता। फिर भी वह कंष्ट का अनुभव कैसे नहीं करेगा ? विकासशील प्राणी मूक होने पर भी अपनी अंग-संचालन-क्रिया से पीड़ा जता सकते हैं। जिनमें यह शक्ति भी नहीं होती, वे किसी भी तरह अपनी स्थिति को स्पष्ट नहीं कर सकते । इससे स्पष्ट है कि बोलना, अंग-संचालन होते दीखना, चेष्टाओं को व्यक्त् करना, ये आत्मा के व्यापक लक्षण नहीं हैं । ये केवल विशिष्ट शरीरधारी यानी त्रसजातिगत आत्माओं के होते हैं। स्थावर जातिगत आत्माओं में ये स्पष्ट लक्षण नहीं मिलते। इससे उनकी चेतनता और सुख-दुःखानुभूति का लोप थोड़े ही किया जा सकता है ! स्थावर जीवों की कष्टानुभूति की चर्चा करते हुए शास्त्रों में लिखा है — “ जन्मान्ध, जन्म- मूक, जन्म-बधिर एवं रोगग्रस्त पुरुष के शरीर का कोई युवा पुरुष तलवार एवं खड्ग से ३२ स्थानों का छेंदन-भेदन करे, उस समय उसे जैसा कष्ट होता है, वैसा कष्ट पृथ्वी के जीवों को स्पर्श करने से होता है । तथापि सामग्री के अभाव में वे बता नहीं सकते ।” मानव प्रत्यक्ष प्रमाण का आग्रही हैं, इसलिए वह इस परोक्ष तथ्य को स्वीकार करने से हिचकता है । जो कुछ भी हो, इस विषय पर हमें इतना सा स्मरण कर लेना होगा कि आत्मा अरूपी चेतन सत्ता है । वह किसी प्रकार भी चर्म चक्षु द्वारा प्रत्यक्ष नहीं हो सकती ।
आज से ढाई हजार वर्ष पहले कोशाम्बी - पति राजा प्रदेशी ने अपने जीवन के नास्तिक - काल में शारीरिक अवयवों के परीक्षण द्वारा आत्म- प्रत्यक्षीकरण के अनेक प्रयोग किए, किन्तु उसका वह समूचा प्रयास विफल रहा ।
आज के वैज्ञानिक भी यदि वैसे ही असम्भव चेष्टाएं करते रहेंगे, तो कुछ भी तथ्य नहीं निकलेगा। इसके विपरीत यदि वे चेतना का आनुमानिक एवं स्व-संवेदनात्मक अन्वेषण करें, तो इस गुत्थी को अधिक सरलता से सुलझा सकते हैं।
चेतना का पूर्वरूप क्या है ?
निर्जीव पदार्थ से सजीव पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती — इस तथ्य को स्वीकार करने वाले दार्शनिक चेतना तत्त्व को अनादि अनन्त मानते हैं । दूसरी श्रेणी उन दार्शनिकों की है जो निर्जीव से सजीव पदार्थ की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड की धारणा भी यही है कि जीवन का आरंभ निर्जित पदार्थ से हुआ । वैज्ञानिक जगत् में भी इस विचार की दो धारणाएं हैं ।