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जैन दर्शन और संस्कृति परिमाण सदा समान नहीं रहता। वह संकुचित या विकसित होता रहता है। फिर भी अणु जितना संकुचित और लोकाकाश जितना विकसित (केवली समुद्घात के सिवाय) नहीं होता, इसलिए जीव मध्यम परिमाण की कोटि के होते हैं।
संकोच और विकोच जीवों की स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है-वे कार्मण शरीर-सापेक्ष होते हैं। कर्म-युक्त दशा में जीव शरीर की मर्यादा में बंधे हुए हैं इसलिए उनका परिमाण स्वतन्त्र नहीं होता। कार्मण शरीर का छोटापन और मोटापन गति-चतुष्टय-सापेक्ष (देव, नारक, मनुष्य और तिर्यंच-ये चार गति है) होता है। मुक्त्त-दशा में संकोच-विकोच नहीं, वहाँ चरम शरीर के ठोस (दो तिहाई) भाग में आत्मा का जो अवगाह होता है, वही रह जाता है।
आत्मा के संकोच-विकोच की दीपक के प्रकाश से तुलना की जा सकती है। खुले आकाश में रखे हुए दीपक का प्रकाश अमुक परिमाण का होता है। उसी दीपक को यदि कोठरी में रख दें, तो वही प्रकाश कोठरी में समा जाता है। एक घड़े के नीचे रखते हैं, तो घड़े में समा जाता है। ढंकनी के नीचे रखते हैं तो ढंकनी में समा जाता है। उसी प्रकार कार्मण शरीर के आवरण से आत्म-प्रदेशों का भी संकोच और विस्तार होता रहता है।
जो आत्मा बालक शरीर में रहती है, वही आत्मा युवा-शरीर में रहती है और वही वृद्ध-शरीर में। स्थूल-शरीर-व्यापी आत्मा कृश-शरीर-व्यापी हो जाती है। कृश-शरीर-व्यापी आत्मा स्थूल-शरीर-व्यापी हो जाती है।
इस विषय में एक शंका हो सकती है कि आत्मा को शरीर-परिमाण मानने से वह अवयव-सहित हो जाएगी और अवयव-सहित हो जाने से वह अनित्य हो जाएगी, क्योंकि जो अवयव-सहित होता है, वह विशरणशील-अनित्य होता है। घड़ा अवयव-सहित है, अत: अनित्य है। इसका समाधान यह है कि यह कोई नियम नहीं कि जो अवयव-सहित होता है, वह विशरणशील ही होता है। जैसे घड़े का आकाश, पट का आकाश इत्यादिक रूपता से आकाश सावयव है और नित्य है, वैसे ही आत्मा भी सावयव और नित्य है और जो अवयव किसी कारण से इकट्टे होते हैं, वे ही फिर अलग हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त जो अविभागी अवयव हैं, वे अवयवी से कभी पृथक् नहीं हो सकते।
. विश्व की कोई भी वस्तु एकांत (निरपेक्ष) रूप से नित्य और अनित्य नहीं है, किन्तु नित्यानित्य है। आत्मा नित्य भी है, अनित्य भी है। आत्मा का चैतन्य-स्वरूप कदापि नहीं छूटता, अत: आत्मा नित्य है। आत्मा के प्रदेश कभी संकुचित रहते हैं, कभी विकसित रहते हैं, कभी सुख में, कभी दुःख में—इत्यादि कारणों से तथा पर्यायान्तर से आत्मा अनित्य है। अत: स्याद्वाद की दृष्टि से सावयवता भी आत्मा के शरीर-परिमाण होने में बाधक नहीं है।