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जैन दर्शन और संस्कृति ... गति जीव और अजीव दोनों में होती है किंतु इच्छापूर्वक या सहेतुक गति-आगति तथा गति-आगति का विज्ञान केवल जीवों में होता है, अजीव पदार्थ में नहीं।
अजीव के चार प्रकार-धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश और काल गतिशील नहीं है, केवल पुद्गल गतिशील है। उसके दोनों रूप परमाणु और स्कन्ध (परमाणु-समुदाय) गतिशील हैं। इनमें नैसर्गिक और प्रायोगिक-दोनों प्रकार की गति होती है। स्थूल-स्कन्ध प्रयोग के बिना गति नहीं करते। सूक्ष्म-स्कन्ध स्थूल-प्रयत्न के बिना भी गति करते हैं। इसलिए उनमें इच्छापूर्वक गति और चैतन्य का भ्रम हो जाता है। सूक्ष्म-वायु के द्वारा स्पष्ट पुद्गल-स्कन्धों में कम्पन, प्रकम्पन, चलन, क्षोभ, स्पन्दन, घट्टन, उदीरणा और विचित्र आकृतियों का परिणमन देखकर विभंग-अज्ञानी (मिथ्यात्वी का अवधि-ज्ञान विभंग-अज्ञान कहलाता है) को 'ये सब जीव हैं'-ऐसा भ्रम हो जाता है।
अजीव में जीव या अणु में कीटाणु का भ्रम होने का कारण उनका गति और आकृति सम्बन्धी साम्य है।
जीवत्व की अभिव्यक्ति के साधन उत्थान, बल, वीर्य हैं। वे शरीर-सापेक्ष हैं। शरीर पौद्गलिक है। इसलिए चेतन द्वारा स्वीकृत पुद्गल और चेतन-मुक्त पुद्गल में गति और आकृति के द्वारा भेद-रेखा नहीं खींची जा सकती।' जीव के व्यावहारिक लक्षण
सजातीय-जन्म, वृद्धि, सजातीय-उत्पादन, क्षत-संरोहण (घाव भरने की शक्ति) और अनियमित तिर्यग-गति-ये जीवों के व्यावहारिक लक्षण हैं। एक मशीन खा सकती है, लेकिन खाद्य रस के द्वारा अपने शरीर को बढ़ा नहीं सकती। किसी हद तक अपना नियंत्रण करने वाली मशीनें भी हैं। टारपीड़ो में स्वयं-चालक शक्ति है, फिर भी वे न तो सजातीय यन्त्र की देह से उत्पन्न होते हैं और न किसी सजातीय यन्त्र को उत्पन्न करते हैं। ऐसा कोई यन्त्र नहीं जो अपना घाव खद भर सके या मनुष्यकृत नियमन के बिना इधर-उधर घूम सके तिर्यग-गति कर सके। एक रेलगाड़ी पटरी पर अपना बोझ लिये पवन-वेग से दौड़ सकती है, पर उससे कुछ दूरी पर रेंगने वाली एक चींटी को भी वह नहीं मार सकती । १. हिन्दी विश्वभारती, खण्ड १. पृ. १३८ :
सोडियम धातु के टुकड़े पानी में तैरकुआ कीड़ों की तरह तीव्रता से इधर-उधर दौड़ते हैं और शीघ्र ही रासायनिक क्रिया के कारण समाप्त होकर लुप्त हो जाते हैं।