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मैं कौन हूँ?
दो प्रवाह : आत्मवाद और अनात्मवाद
आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष पर विश्वास करने वाले ‘क्रियावादी' (या आस्तिक) और इन पर विश्वास नहीं करने वाले 'अक्रियावादी' (नास्तिक) कहलाए। क्रियावादी वर्ग ने संयमपूर्वक जीवन बिताने का, धर्माचरण करने का उपदेश दिया और अक्रियावादी वर्ग ने सुखपूर्वक जीवन बिताने को ही परमार्थ बतलाया। क्रियावादियों ने--"शारीरिक कष्टों को समभाव से सहना महाफल है", “कष्ट सहने से आत्महित सधता है”—ऐसे वाक्यों की रचना की और अक्रियावादियों के मन्तव्य के आधार पर—“यावज्जीवेत् सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्"-अर्थात् “जब तक जीएं सुख से जीएं, ऋण (कर्ज) करके भी घी पीएं"-जैसी युक्तियों का सृजन हुआ।.
क्रियावादी वर्ग ने कहा-"जो रात या दिन चला जाता है, वह वापस नहीं आता। अधर्म करने वाले के रात-दिन निष्फल होते हैं, धर्मनिष्ठ व्यक्ति के वे सफल होते हैं इसलिए धर्म करने में एक क्षण भी प्रमाद मत करो, क्योंकि यह जीवन कुश के नोक पर टिकी हुई हिम की बूंद के समान क्षणभंगुर है। यदि इस जीवन को व्यर्थ गंवा दोगे तो फिर दीर्घकाल के बाद भी मनुष्य-जन्म मिलना बड़ा दुर्लभ है। कर्मों के विपाक बड़े निबिड़ होते हैं। अत: समझो, तुम क्यों नहीं समझते हो? ऐसा सद्-विवेक बार-बार नहीं मिलता। बीती हुई रात फिर लौटकर नहीं आती और न मानव-जीवन फिर से मिलना सुलभ है। जब तक बुढ़ापा न सताए, रोग घेरा न डाले, इन्द्रियाँ शक्ति-हीन न बनें, तब तक धर्म का आचरण कर लो, नहीं तो फिर मृत्यु के समय वैसे ही पछताना होगा, जैसे साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़कर ऊबड़-खाबड़ मार्ग में जाने वाला गाड़ीवान रथ की धुरी टूट जाने पर पछताता है।" ___अक्रियावादियों ने कहा-“यह सबसे बड़ी मूर्खता है कि लोग दृष्ट सुखों को छोड़कर अदृष्ट सुख को पाने की दौड़ में लगे हुए हैं। ये कामभोग हाथ में आए हुए हैं, प्रत्यक्ष हैं। जो पीछे होने वाला है, न जाने कब क्या होगा?