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मैं कौन हूँ ? परलोक किसने देखा है? कौन जानता है कि परलोक है या नहीं? जन-समूह का एक बड़ा भाग सांसारिक सुखों का उपभोग करने में व्यस्त है, तब फिर हम क्यों न करें? जो दूसरों को होगा वही हमको भी होगा। हे प्रिये ! चिंता करने जैसी कोई बात नहीं, खूब खा-पी, आनन्द कर, जो कुछ कर लेगा, वह तेरा है। मृत्यु के बाद आना-जाना कुछ भी नहीं। कुछ लोग परलोक के दुःखों का वर्णन कर -कर जनता को प्राप्त सुखों से विमुख किए देते हैं। पर यह अतात्विक है।”
क्रियावाद की विचारधारा में वस्तुस्थिति स्पष्ट हुई। लोगों ने संयम सीखा। त्याग-तपस्या को जीवन में उतारा ।
अक्रियावाद की विचार-प्रणाली से वस्तुस्थिति ओझल रही। लोग भौतिक सुखों की ओर मुड़े।
क्रियावादियों ने कहा- “सुकृत और दुष्कृत का फल होता है। शुभ कर्मों का फल अच्छा और अशुभ कर्मों का फल बुरा होता है। जीव अपने पाप एवं पुण्य कर्मों के साथ ही परलोक में उत्पन्न होते हैं। पुण्य और पाप दोनों का क्षय होने से असीम आत्म-सुखमय मोक्ष मिलता है।"
फलस्वरूप लोगों में धर्मरुचि पैदा हुई। अल्प-इच्छा, अल्प-आरंभ और अल्प-परिग्रह का महत्त्व बढ़ा। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह–इनकी उपासना करने वाला महान् समझा जाने लगा।
अक्रियावदियों ने कहा- “सुकृत और दुष्कृत का फल नहीं होता। शुभ कर्मों के शुभ और अशुभ कर्मों के अशुभ फल नहीं होते। आत्मा परलोक में - जाकर उत्पन्न नहीं होती।"
फलस्वरूप लोगों में संदेह बढ़ा। भौतिक लालसा प्रबल हुई। अत्यधिक . तृष्णा, हिंसा और परिग्रह का राहु जगत् पर छा गया।
क्रियावादी की अन्तर् दृष्टि "अपने किये कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं” इस पर लगी रहती है। वह जानता है कि कर्म का फल भुगतना होगा, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में। किन्तु उसका फल चखे बिना मुक्ति नहीं। इसलिए यथासंभव पाप-कर्म से बचा जाए, यही श्रेयस् है। अन्तर्-दृष्टिवाला व्यक्ति मृत्यु के समय भी घबराता नहीं, दिव्यानन्द के साथ मृत्यु का वरण करता
अक्रियावादी का दृष्टि-बिंदु-"ये काम हाथ में आए हुए हैं"--जैसी भावना पर टिका हुआ होता है। वह सोचता है कि इन भोग-साधनों का जितना अधिक उपभोग किया जाए, वही अच्छा है। मृत्यु के वाद कुछ होना-जाना नहीं है। इस प्रकार उसका अन्तिम लक्ष्य भौतिक सुखोपभोग ही होता है। वह कर्म-बन्ध से