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जैन दर्शन और संस्कृति द्वारा उनके ग्रहण होने के बाद ही होता है, इसलिए संज्ञी-ज्ञान में इन दोनों का गहरा सम्बन्ध है। जाति-स्मृति
पूर्वजन्म की स्मृति (जाति-स्मृति) 'मति' का ही एक विशेष प्रकार है। इससे पिछले अनेक समनस्क जीवनों की घटनावलियाँ जानी जा सकती हैं। पूर्वजन्म में घटित घटना के समान घटना घटने पर वह पूर्व-परिचित-सी लगती है। ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करने से चित्त की एकाग्रता और शुद्धि होने पर पूर्वजन्म की स्मृति उत्पन्न होती है। सब समनस्क जीवों को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं होती, इसकी कारण-मीमांसा करते हुए आचार्य ने लिखा है
“जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो। तेण दुक्खेण संमूढो, जाई सरइ न अप्पणो ।"
-व्यक्ति 'मृत्यु' और 'जन्म' की वेदना से सम्मूढ हो जाता है; इसलिए साधारणतया उसे जाति की स्मृति नहीं होती।
एक ही जीवन में दुःख-व्यग्रदशा (सम्मोह-दशा) में स्मृति-भ्रंश हो जाता है, तब वैसी स्थिति में पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त हो जाए, उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं।
पूर्वजन्म के स्मृति-साधन मस्तिष्क आदि नहीं होते, फिर भी आत्मा के दृढ़-संस्कार और ज्ञान-बल से उसकी स्मृति हो आती है इसीलिए तो ज्ञान दो प्रकार का बतलाया है—इस जन्म का ज्ञान और अगले जन्म का ज्ञान। अतीन्द्रियज्ञान-योगीज्ञान
अतीन्द्रिय ज्ञान इंद्रिय और मन दोनों से महत्त्वपूर्ण है। वह प्रत्यक्ष है, इसलिए . पौदगलिक साधनों-शारीरिक अवयवों के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती। यह 'आत्ममात्रापेक्ष' होता है। हम जो त्वचा से छूते हैं, कानों से सुनते हैं, आंखों से देखते हैं, जीभ से चखते हैं, वह वास्तविक प्रत्यक्ष नहीं है। हमारा ज्ञान शरीर के विभिन्न अवयवों से सम्बन्धित होता है, इसलिए उसकी नैश्चयिक सत्य (निरपेक्ष. सत्य) तक पहुँच नहीं होती। उसका विषय केवल व्यावहारिक सत्य (सापेक्ष सत्य) होता है। उदाहरण के लिए स्पर्शन-इन्द्रिय को लीजिए। हमारे शरीर का सामान्य तापमान ९७ या ९८ डिग्री होता है। उससे कम तापमान वाली वस्तु हमारे लिए " ठंडी होगी। जिसका तापमान हमारी ऊष्मा से अधिक होगा, वह हमारे लिए गर्म होगी। हमारा यह ज्ञान स्वस्थिति-स्पर्शी होगा, वस्तु-स्थिति-स्पी नहीं। इसी प्रकार