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सीमित हैं, किन्तु इन वृक्षों, प्राणियों से वनों का, सरोवरों का, खेती-बाड़ी का भयंकर विनाश भी हो रहा है जो पर्यावरण के लिए भयंकर खतरा बन गया है। प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ रहा है। भयंकर दुष्काल व सूखा, विनाशकारी तूफान
और बाढ़े, नित नई बीमारियां, यह सब दूषित पर्यावरण के ही विनाशकारी परिणाम हैं, जो लाखों-करोड़ों मनुष्यों के लिए दुर्भाग्य बन रहे
. अब विचारणीय यह है कि इस प्रदूषण को रोकने और विश्व के विनाश तथा असंतुलन की अवस्था न आने देने के लिए जैन धर्म ने क्या सन्देश दिया है?
यद्यपि यह सत्य है कि जैन शास्त्रों में कहीं पर भी प्रदूषण शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है और न ही कहीं पर भी इससे बचने के स्पष्ट उपाय बताये गये हैं। लेकिन जैन धर्म ने जिस आचार संहिता का निर्माण किया है और जिस आचरण की प्रेरणा दी है, उससे प्रदूषण पैदा ही नहीं होता।
प्रदूषण कैसे नहीं होता ? इसे अहिंसा के चिन्तन-आलोक में समझें।