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है, प्रकृति के दोहन के नाम पर उसका दो+हन दुहरा विनाश या विध्वंस करता है । प्रचारित किया जाता है कि इससे संपूर्ण मानव जाति का हित होगा; लेकिन वास्तव में यह कुछ गिने-चुने सत्ताधारी और धनाढ्य व्यक्तियों की स्वार्थपूर्ति तक ही सीमित रह जाता है; प्रकृति के अत्यधिक दोहन से जो प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है, उस संतुलन को पुनः स्थापित करने के लिए प्रकृति जो करबट बदलती है, उससे उठे हुए भूचाल और बबंडर का फल संपूर्ण मानव जाति को तो भोगना ही पड़ता है। साथ ही असंख्य क्षुद्र जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, जल और वनस्पति जगत भी क्षीणप्राय - नष्ट - सा हो जाता है।
आज लकड़ी के लिए प्राकृतिक वन सम्पदा का विनाश, चमड़े के लिए लाखों गाय-भैंस, भेड़, बकरी, सिंह, बाघ, भालू आदि की हत्याएं, हाथी दांतों के लिए सौम्य शाकाहारी हाथियों को मारना, मुलायम रोएँदार बाल व कोमल चमड़ी के लिए कराकुल भेड़ें, सील मछलियों की नृशंस हत्या, यह न केवल उनके विनाश तक ही