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गया है । ज्ञान की तल्लीनता स्वात्मभावों में जब तक रहती है, वही कालमान ज्ञानसामायिक का है ।
ऐसा भी होता है कि शोर, डांस-मच्छर आदि के काटने अथवा अन्य किसी प्रबल निमित्त के कारण ज्ञान की तल्लीनता में विक्षेप भी हो जाता है; किन्तु ज्ञानधारा आत्मिक परिणामों में यदि चलती रहे तो व्यक्ति पुनः सुस्थिर हो जाता है ।
उदाहरणार्थ, किसी डांस-मच्छर ने हाथ-पाँव में काटा, या पीठ में खुजली मची, पीड़ा अथवा खुजलाहट की अनुभूति हुई, हाथ पीठ की ओर गया-खुजलाने के लिए; लेकिन मन में अभी आत्मा के ज्ञान दर्शन आदि गुणों का चिन्तन-मनन चलता रहा, हल्का सा विक्षेप हुआ फिर तुरन्त हाथ लौट आया । इस स्थिति में चित्त की ज्ञानधारा
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