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खण्डित नहीं हुई, चलती रही तो साथ ही ज्ञानसामायिक भी अविच्छिन्न रही ।
(क) चारित्रसामायिक - शास्त्रों में इसके दो भेद बताये गये हैं- १. सर्वविरति सामायिक और २. देशविरति सामायिक । सर्बविरति सामायिक श्रमणों-साधु-साध्वियों के लिए है और देशविरति सामायिक गृहस्थ श्रावकों के लिए ।
(३) सर्वविरतिसामायिक - यह जीवन भर के लिए समस्त सावद्ययोग (पापकारी प्रवृत्ति) विरति के रूप में है । प्रव्रज्या ग्रहण करते ही श्रमण श्रमणी जीवनभर के लिए त्रिकरण - त्रियोग से हिंसा आदि सभी पापों का त्याग कर देते हैं । उनका प्रथम चारित्र ही सामायिक चारित्र कहा जाता है ।
समस्त सावद्ययोग विरत - त्यागी श्रमण (श्रमणी) जब बाह्य प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर
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