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कुशलता का प्रयोग करता है । यदि उचित लाभ न मिले तो उस व्यापार को बन्द करने में क्षण भर का भी विलम्ब नहीं करता तुरन्त दूसरा व्यापार शुरू कर देता है ।
लाभ अथवा प्राप्ति की आशा से कार्य में प्रवृत्त होना मानव का स्वभाव है । फिर आशा ही ऐसी प्रेरणा है जो मानव को कर्म में प्रवृत्त करती है । आशा टूटने पर तो मनुष्य हताश-निराश हो जाता है, उसका जीवन ही मरणतुल्य हो जाता है । वह किसी भी प्रकार का कार्य करना ही नहीं चाहता, उसका उत्साह मर जाता है।
फिर भी कर्म के साथ फलेच्छा की असंगता की दृष्टि से गीता के निष्काम कर्मयोग को उचित कहा जा सकता है, यह तनावों, दुःखों, पीड़ाओं से मानव को मुक्ति दिला सकता है, शर्त यही है कि मनुष्य इसे
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