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जिन प्रतिमा पूजनीय क्यों? ...7 यदि गुणस्थान की अपेक्षा चिंतन करें तो वर्तमान में कोई भी जीव सातवें गुणस्थान से ऊपर नहीं चढ़ सकता और उसमें भी सातवें गुणस्थान की स्थिति भी मात्र अन्तर्मुहूर्त काल है। छठे गुणस्थान तक प्रमादयुक्त अवस्था होने से निरालम्बन ध्यान संभव ही नहीं है। इससे निर्विवादत: वर्तमान में मूर्ति की आवश्यकता सिद्ध हो जाती है। ___ शंका- मूर्ति एकेन्द्रिय पाषाण की होने से प्रथम गुणस्थानवर्ती हुई तब चौथे-पाँचवे गुणस्थानवर्ती श्रावक एवं छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती साधु उसे किस प्रकार वंदन कर सकते हैं?
समाधान- गुणस्थानक यह सचित्त जीवों के ही होता है। पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय जीव होने से वे प्रथम गुणस्थानवर्ती होते हैं परंतु खदान से अलग करके उस पर शस्त्रादि लगाने के पश्चात वह अचित्त हो जाता है। अचेतन वस्तु के गुणस्थानक नहीं होता। अब यदि गुणस्थानक रहित वस्तु को मानने से इनकार किया जाए तो सिद्ध भगवान सर्वथा गुणस्थान के रहित होते हैं। फिर भी समस्त कर्मों का क्षय करने से संसारी आत्मा के लिए परम श्रद्धेय एवं पूज्य हैं। गुणस्थानक संसारी जीवों के लिए है, सिद्धों के लिए नहीं।
दूसरा तथ्य यह है कि जिस प्रकार मूर्ति गुणस्थानक रहित है कि वैसे ही कागज आदि से बनी पुस्तक का भी कोई गुणस्थानक होता नहीं। फिर भी प्रत्येक धर्म में अपने-अपने धार्मिक ग्रन्थों को आदर एवं सम्मान के साथ पूजा जाता है। पुस्तक भी एकेन्द्रिय स्थानवर्ती वनस्पतिकाय से ही निर्मित हैं। जब शास्त्र पूजनीय हो सकते हैं तो जिन प्रतिमा क्यों नहीं?
भगवती सूत्र में 'नमो बंभीए लिविए' कह कर गणधर भगवन्तों ने अक्षर रूपी ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया हैं, इसमें कौनसा गुणस्थानक है? मृतक तीर्थंकर या साधु का शरीर भी अचेतन होने से गुणस्थानक रहित है! फिर भी उनके अन्तिम दर्शन एवं अग्नि संस्कार के लिए लोग उमड़ते हैं। जब यह गुरु भक्ति का कार्य उचित हैं तो फिर प्रतिमा का पूजन-वंदन आदि जिनभक्ति के कार्य अनुचित कैसे हो सकते हैं?
शंका- पत्थर की मूर्ति की पूजा-भक्ति करने से क्या फायदा? क्या मूर्ति स्तुति, स्तवन आदि सुन सकती है?
समाधान- पाषाण निर्मित प्रतिमा तो मात्र एक आलंबन है, वीतराग