________________
36...सज्जन तप प्रवेशिका
14. मुक्तावली तप
मुक्ता + आवली का अर्थ है – मोतियों की माला। जिस प्रकार मोतियों की माला में उतार-चढ़ाव होता है उसी प्रकार इस तप में भी चढ़ाव-उतार वाली तपश्चर्या की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस तप में मोतियों के हार विशेष की आकृति की कल्पना के अनुसार एक चरण आगे बढ़कर फिर पीछे आया जाता है और फिर अगले चरण से एक चरण आगे बढ़ा जाता है, इसलिए इसे मुक्तावली तप कहते हैं। यह तपस्वियों के कण्ठ के आभरण रूप निर्मल मुक्तावली सदृश होने के कारण भी इसे मुक्तावली तप कहा जाता है। यह तप करने से मोतियों की भाँति विविध प्रकार के गुणों की प्राप्ति होती है।
अन्तकृत्दशा (8/9 वें) में मुक्तावली तप का सम्यक् वर्णन किया गया है। तदनुसार यह तप आर्या पितृसेन कृष्णा ने अंगीकार किया था। यह साधुओं एवं श्रावकों दोनों के करने योग्य आगाढ़ तप है। ___ इसकी स्पष्ट विधि निम्न प्रकार है - विधि
मुक्तावल्यां चतुर्थादि, षोडशाधावली-द्वयम् । पूर्वानुपूर्व्या पश्चानुपूर्व्या, ज्ञेयं यथाक्रमम् ।। एक द्वयेक-गुणैक-वेद-वसुधा-बाणैक-षड्भूमिभिः । सप्तैकाष्टमही- नवैक- दशभि-भूरूद्रभूभानुभिः ।। भूविश्वैः शशिमन्विता तिथिधरा, विद्यासुरीभिर्मितैः । एतद् व्युत्क्रमणोपवास गणितै-मुक्तावली जायते ।।
आचारदिनकर, पृ. 349 इस तप में सर्वप्रथम एक उपवास करके पारणा करें फिर निरन्तर दो उपवास (बेला) करके पारणा करें फिर एक उपवास करके पारणा करें। उसके बाद तीन उपवास करके पारणा करें, फिर एक उपवास करके पारणा करें। तत्पश्चात क्रमश: चार उपवास करके पारणा करें, फिर पुन: एक उपवास करके पारणा करें। इसी प्रकार इस तप में एक उपवास से सोलह उपवास तक बीचबीच में एक-एक उपवास करते हुए पारणा करें। सोलह उपवास के पारणा के बाद पुन: एक उपवास करके पारणा करें। इस प्रकार पूर्वानुपूर्वी क्रम से यह एक श्रेणी पूर्ण होती है।