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________________ जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...11 • दिन के आदि, मध्य और चरम इन तीन भागों में से एक भाग में भिक्षाटन करते हैं। • परिचित स्थान पर एक रात तथा अपरिचित स्थान पर एक या दो रात रुकते हैं। • प्रतिमाधारी भिक्षु 1. आहार की याचना करने हो 2. मार्ग पूछने 3. स्थान आदि के लिए आज्ञा लेने और 4. आवश्यक प्रश्नों का उत्तर देने - इन चार कार्यों से ही भाषा का प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त मौन रहते हैं। • वे मुनि जीवन की सुरक्षा के लिए स्वयं के स्थान से बाहर नहीं निकलते। • विहार करते समय यदि पाँव में कांटा लग जाये तो उसे निकालते नहीं हैं और आँखों में धूल पड़ जाये तो उसको भी दूर नहीं करते हैं। • जहाँ सूर्यास्त हो जाए वहीं ठहर जाते हैं। • मात्र लिंग शुद्धि के लिए जल का प्रयोग करते हैं। • विहार के समय यदि कोई हिंसक जीव सामने आ जाए तो डरकर पीछे नहीं हटते। • शीत निवारण के लिए गरम स्थानों या तद्रूप वस्त्रों का सेवन नहीं करते। • गर्मी का परिहार करने के लिए शीत स्थान में नहीं जाते। इस तरह विशिष्ट नियमों के द्वारा प्रतिमाओं का पालन करते हैं। द्वादश प्रतिमाओं का स्वरूप इस प्रकार है - 1. मासिकी प्रतिमा - इस प्रतिमा के धारक साधु एक अन्न की और एक पानी की दत्ति ग्रहण करते हैं। दत्ति का अभिप्राय है अखण्ड धारा यानि दाता भोजन देना प्रारम्भ करे, तब से जब तक वह क्रम बीच में नहीं टूटता तब तक का आहार एक दत्ति रूप कहलाता है। गृहस्थ अपने तरीके से भोजनादि देता है, अत: अन्न-पानी की धारा तुरन्त भी टूट सकती है और अधिक आहार के रूप में भी चल सकती है। प्रथम प्रतिमाधारी साधु एक मास तक किसी प्रकार का सांसारिक चिन्तन न करते हुए हमेशा कायोत्सर्ग में रहते हैं। सिर्फ एक बार भिक्षा के लिए जाते हैं। उसमें भी कठोर नियम के साथ यदि आहार मिले तो लेते हैं वरना बिना लिए ही लौट आते हैं।
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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