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10...सज्जन तप प्रवेशिका
इस प्रकार भले ही तप संख्या की अधिकता एवं प्रचलित सामाचारी में सर्वमान्य होने से विधिमार्गप्रपा और आचारदिनकर को मूलभूत आधार बनाया है फिर भी आगम कथित तपों का स्वरूप यथायोग्य वर्गीकरण के साथ किया जायेगा। ___यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इन तपों में योगोपधान मुख्य है और उसकी विधि केवली द्वारा भाषित है, अतएव इस तप की चर्चा खण्ड-3 गृहस्थ के व्रतारोपण अधिकार में कर चुके हैं। गृहस्थों के लिए योगोद्वहन-तप का विधान नहीं है, किन्तु मुनियों को इसे अवश्य करना चाहिए।
ऐहिक फल की पूर्ति करने वाली तपस्याएँ साधु-साध्वियों तथा प्रतिमाधारी एवं सम्यक्त्वधारी श्रावकों को नहीं करनी चाहिए। शेष सभी तप गुणवान साधुसाध्वी और श्रावक-श्राविकाओं के द्वारा अवश्यमेव करणीय हैं। केवलज्ञानी तीर्थङ्कर पुरुषों द्वारा प्ररूपित तप 1. भिक्षु प्रतिमा तप
प्रतिमा का सामान्य अर्थ है प्रतिज्ञा। विविध प्रकार के अभिग्रहों के साथ तप का आचरण करना प्रतिमा कहलाता है। प्रतिमाएँ बारह प्रकार की कही गयी हैं। यह प्रतिमा-तप मुनियों के द्वारा कष्ट साध्य परिस्थितियों को सहर्ष रूप से स्वीकार करने, समत्व योग की साधना करने एवं विपुल कर्मों की निर्जरा करने के उद्देश्य से वहन किया जाता है।
बारह प्रतिमाओं की तप-विधि कहने से पूर्व यह बतलाना जरूरी है कि प्रतिमाधारी साधु इस तपश्चरण के दरम्यान अग्रांकित नियमों का पालन करता हुआ उत्तरोत्तर आत्मदिशा की ओर अभिमुख होता है। दशाश्रुतस्कन्धसूत्र में इस विषयक विस्तृत चर्चा की गयी है। यह भी ध्यातव्य है कि भिक्षु प्रतिमा सम्बन्धी विशद् वर्णन इसी छेदसूत्र में उपलब्ध होता है।
• दशाश्रुत (सातवीं दशा) के अनुसार प्रतिमाधारी साधु जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना है, वहाँ से आहार नहीं लेते हैं।
• गर्भवती या छोटे बच्चे की माँ के लिए बनाया गया भोजन नहीं लेते हैं।
• दुग्धपान छुड़वाकर भिक्षा देने वाली स्त्री तथा अपने आसन से उठकर भोजन देने वाली आसन्न प्रसवा स्त्री से भोजन नहीं लेते हैं।
• जिसके दोनों पैर देहली के भीतर या बाहर हो उससे आहार नहीं लेते हैं।