SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सज्जन तप प्रवेशिका...xivii जिसके पास अंग ढ़कने के लिए कपड़ा नहीं है वह यदि मस्तक पर पगड़ी धारण करता है तो जगत में हँसी का पात्र बनता है वैसे ही क्रिया रहित ज्ञानी व्यक्ति भी हंसी का पात्र बनता है। क्रिया किए बिना पाप शुद्धि संभव नहीं है। इसीलिए तप के साथ क्रिया को आवश्यक माना है। ज्ञान और क्रिया एक ही रथ के दो पहिये हैं। एक भी पहिया कमजोर हो तो आत्मा रूपी रथ मक्ति मार्ग पर सम्यक गति नहीं कर सकता है। दूसरे का ज्ञान हमारी क्रिया में उपयोगी बन सकता है परंतु क्रिया कभी दूसरों के लिए उपयोगी नहीं बनती। स्वयं की क्रिया स्वयं के लिए ही उपयोगी बनती है। किसी भी कला का ज्ञान होने मात्र से वह सुपरिणामी नहीं बनती तदहेतु उसकी क्रियान्विती होना आवश्यक है। मात्र ज्ञान से कभी भी मनोरथ सफल नहीं हो सकते। तैरने की कला में Ph.D. करने वाला यदि डूबते समय उस ज्ञान को क्रियान्विती में न लाए तो वह ज्ञान उपयोगी एवं सिद्धिदायक नहीं होता। कई लोग कहते हैं कि अर्थ का ज्ञान न होने पर आचरण करने से क्या लाभ? शास्त्रकार इसका समाधान देते हुए कहते हैं कि महर्षियों द्वारा प्रणीत महामंत्र श्रद्धा पूर्वक श्रवण करने पर भी लाभ देता है। जैसे सर्प विष हरण करने के लिए विषाक्त व्यक्ति पर गारूड़ी मंत्र का प्रयोग उसे मंत्र ज्ञान न होने पर भी अवश्य लाभदायी होता है। इसी प्रकार क्रिया के दरम्यान प्रयुक्त सूत्रों के अर्थ का ज्ञान न भी हो तो उनके प्रति रही श्रद्धा अवश्य काम करती है। अर्थ की जानकारी के साथ क्रिया करना सर्वोत्तम है परन्तु यदि अर्थ का ज्ञान न भी हो तो भी श्रद्धा एवं भाव पूर्वक की गई क्रिया भी ज्ञान के अभाव में साधक को लक्ष्य तक पहुँचाती है। कई लोग प्रश्न करते हैं कि तप के साथ खमासमण, प्रदक्षिणा, साथिया आदि क्रिया क्यों करनी चाहिए? प्रदक्षिणा, खमासमण आदि क्रियाओं से तप में भावोल्लास बढ़ता है। इनके माध्यम से परमात्मा की आराधना होती है। समय, शक्ति आदि का सद्व्यय होता है। इन क्रियाओं के माध्यम से तपाराधना की स्मृति बार-बार बनी रहती हैं। तप के साथ जप आदि क्रियाएँ उसे विशेष लाभकारी बनाती है। तप का मुख्य हेतु है कर्म निर्जरा। इन क्रियाओं के द्वारा अधिकाधिक कर्मों की निर्जरा होती है अत: तप के साथ इन क्रियाओं का गुंफन किया गया है।
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy