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xivi...सज्जन तप प्रवेशिका
बाह्य तप से जहाँ इन्द्रियों के प्रति आसक्ति, स्वाद लोलुपता, शारीरिक राग आदि न्यून होते हैं वहीं आभ्यंतर तप के द्वारा विनय, मार्दव, आर्जव आदि आन्तरिक गुणों में वृद्धि होती है और आत्मिक निर्मलता बढ़ती है।
वस्तुतः दोनों तपों का वर्गीकरण साधकों को समझाने की दृष्टि से किया गया है। दोनों का लक्ष्य आत्म विशुद्धि ही है। शास्त्रों में आभ्यंतर तप का जो महत्त्व है वही बाह्य तप का है। किसी एक का आग्रह रखना उचित नहीं है। ___बाह्य तप का आचरण तीर्थंकरों द्वारा भी किया गया अत: वह महत्त्वपूर्ण है। अनुभवत: बाह्य तप से साधक का मनोबल एवं कष्ट सहिष्णुता वर्धित होती है। आभ्यंतर तप उस साधना में निखार लाता है। जब बाह्य तप द्वारा मानसिक मलिनता दूर होती है तभी ध्यान, स्वाध्याय आदि प्रवृत्तियाँ सार्थक परिणाम देती है। इसी अपेक्षा से बाह्य तप का क्रम पहले रखा गया है। ___ बाह्य तप और आभ्यंतर तप दोनों का अपना विशिष्ट स्थान है। जैसे किसी एक ही राजप्रासाद में एक आभ्यन्तर भाग होता है और दूसरा बाह्य भाग। आभ्यंतर भाग राजा के अन्तरंग जीवन का केन्द्र होता है और बाह्य भाग राज्य संचालन आदि व्यवस्था का किन्तु किसी का भी महत्त्व कम नहीं होता। वैसे ही बाह्य तप एवं आभ्यंतर तप दोनों ही महत्त्वपूर्ण है। ___कई बार लोग कहते हैं कि तप करने की इच्छा तो होती है परन्तु बड़ीबड़ी क्रियाएँ देखकर हिम्मत नहीं होती। क्या क्रिया रहित तप नहीं कर सकते?
कई लोग आध्यात्मिक क्रियाओं के प्रति अरुचि और विरोधाभाव रखते हुए यह भी कहते हैं कि आत्मा को जानने के बाद क्रिया का महत्त्व नहीं है तो फिर क्रिया करने की क्या आवश्यकता?
___ आगमों में इस शंका का सम्यक समाधान करते हुए कहा गया है'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' ज्ञान और क्रिया दोनों का समाचरण मोक्ष प्राप्ति में हेतुभूत बनता है। एकांत ज्ञान व्यक्ति में अहंकार, उन्माद, प्रमाद, स्वच्छंदता आदि का वर्धन करता है। ऐसे जीवों को ज्ञान की बात मीठी और क्रिया की बात कड़वी लगती है। इनकी सही दशा का वर्णन करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं
जैसे पाग कोउ शिर बांधे, पहिरन नहीं लंगोटी। सद्गुरु पास क्रिया बिनु सीखे, आगम साख त्युं खोटी ।।