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________________ सज्जन तप प्रवेशिका...xiv क्षमावान हो, निरोगी हो और उत्कंठा रहित हो, वे जीव ही तप करने के योग्य होते हैं। इन गुणों से युक्त जीव की तपश्चर्या ही मोक्ष फलदायक एवं शाश्वत सुख प्रदायक होती है। योग्यता रहित तप सिर्फ नाम का तप होता है। तामली तापस द्वारा हजारों वर्षों तक की गई तपस्या भी समचित न होने से निष्फल रही। शास्त्रों में तप का मुख्य अधिकारी मुनि को ही माना गया है। तपस्वी कौन? __प्राय: वर्तमान में उपवास, एकासना, ऊनोदरी आदि बाह्य तप करने वालों को तपस्वी माना जाता है परन्तु यह मात्र एक पक्ष है। स्वाध्याय, सेवा, आलोचना, ध्यान आदि भी तप के ही अन्य भेद हैं तथा उपवास आदि बाह्य तप के अनुरूप शारीरिक सामर्थ्य न होने पर प्रायश्चित्त, विनय आदि करने वाला भी तपस्वी कहलाता है। वस्तुत: बाह्य तप की अपेक्षा आभ्यंतर तप की साधना अधिक कठिन होती है। शास्त्रानुसार तपस्वी किस ध्येय से तपस्या कर रहा है यह महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। यदि तप प्रतिफल के रूप में सांसारिक या भौतिक सुख की इच्छाएँ मौजूद है तो वह तप तपस्वी पद को लज्जित करता है और तप की अक्षुण्ण परम्परा को धूमिल करता है। इन मनोभावों से की गई तप साधना तपस्वी के लिए कल्याणकारी नहीं होती प्रत्युत उसे दुर्गति के उन्मुख करती है। जिस तरह धनार्थी के लिए सर्दी-गर्मी आदि कष्ट दुस्सह नहीं होते उसी तरह संसार विरक्त कर्म निर्जरा के इच्छुक साधक को भी तप दुस्सह नहीं लगता। आत्म विशुद्धि के लक्ष्य से तप करने वाली आत्माएँ ही तपस्वी कही जाती है। ज्ञानयुक्त तपश्चर्या तपस्वी को अक्षुण्ण सुख का उपभोक्ता बनाती है। सम्यगदृष्टि तपस्वी ही साध्य का सामीप्य पा सकते हैं। बाह्य तप आवश्यक है या आभ्यंतर तप? आज के समय में स्वाध्याय आदि की अल्पता के कारण प्राय: लोग तप के साक्षात स्वरूप से अनभिज्ञ है। ऐसे में कई बार प्रश्न उत्पन्न होता है कि बाह्य तप आवश्यक है या आभ्यंतर तप? लोक व्यवहार में यद्यपि बाह्य तप को अधिक महत्त्व दिया गया है परन्तु साधना की दृष्टि से दोनों की अपनी महत्ता है।
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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