________________
xivili...सज्जन तप प्रवेशिका
क्रिया के दोष
आत्म कल्याण में हेतुभूत धार्मिक क्रियाएँ करते समय परिणामों की विशुद्धि, हृदय की एकाग्रता एवं मन की तटस्थता होना जरूरी है। ऐसी विशुद्ध क्रिया ही मोक्षफल को प्रदान करती है।
क्रिया करते समय मन, वचन, काया की स्खलना होना दोष कहलाता है। इसमें मुख्य रूप से आठ प्रकार के दोष लगने की संभावना रहती है जो निम्न हैं___1. खेद- धार्मिक अनुष्ठान करते समय थकान का अनुभव करना एवं मन की दृढ़ता न रखना प्रथम खेद नामक दोष है। जिस प्रकार पानी के बिना खेती सफल नहीं होती उसी तरह इस दोष के सेवन से धर्म आराधना सफल नहीं होती।
2. उद्वेग- क्रिया के प्रति मानसिक अरुचि होना अथवा क्रिया के समय परेशान होना दूसरा उद्वेग नामक दोष है।
3. क्षेप-क्रिया करते समय मन की डांवाडोल स्थिति होना, एक क्रिया करते हुए दूसरी क्रिया का चिंतन करना क्षेप नामक तीसरा दोष है। जिस प्रकार एक बार छिलके से निकाला गया शालि (चावल) का बीज फसल नहीं देता वैसे ही क्षेप युक्त क्रिया से वांछित फल की प्राप्ति नहीं होती।
4. उत्थान- क्रिया के प्रति चित्त में अभाव होना उत्थान दोष हैं। इस दोष के सेवन से धर्म क्रिया का महत्त्व विस्मृत हो जाता है एवं क्रिया मात्र यंत्रवत आचरण बनकर रह जाती है।
5. भ्रान्ति- क्रिया के मुख्य केन्द्रीभूत आशय को छोड़कर अन्य विचारों का चित्त में भ्रमण करना भ्रान्ति दोष है। इस दोष के सेवन से क्रिया का यथार्थ फल सिद्ध होने में विघ्न उपस्थित होते हैं। ___6. अन्यमुद्- क्रिया करते हुए, क्रिया के विशुद्ध परिणामों का अवलंबन छोड़कर अन्य प्रसंग के कारण हर्षित होना अन्यमुद् दोष है। इस दोष के परिणामस्वरूप आचरित क्रिया का फल प्राय: व्यर्थ हो जाता है। ___7. रोग- राग-द्वेष और मोह रूप त्रिदोष से अनेक भाव रोग उत्पन्न होते हैं। इस कारण क्रिया करते समय शुद्ध आशय की जानकारी न होने के कारण