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190...सज्जन तप प्रवेशिका
खमा.
माला
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जाप साथिया
कायो. 1. ॐ अणिमा सिद्धये नमः 2. ॐ महिमा सिद्धये नमः 3. ॐ लघिमा सिद्धये नमः 4. ॐ गरिमा सिद्धये नमः 5. ॐ वशिता सिद्धये नमः 6. ॐ प्राकाम्य सिद्धये नमः 7. ॐ प्राप्ति सिद्धये नमः 8. ॐ ईशिता सिद्धये नमः
अर्वाचीन परम्परा में प्रचलित (लोकोत्तर) तप 1. मेरूत्रयोदशी तप
जैन आम्नाय में माघ कृष्णा त्रयोदशी का दिन मेरूत्रयोदशी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव भगवान ने अष्टापद पर्वत पर निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया था अर्थात सर्व कर्मों पर विजय प्राप्त करके मेरूपर्वत की भाँति आत्मा की सर्वोच्च स्थिति का साक्षात्कार किया था, इसलिए इस दिन को मेरूत्रयोदशी कहा जाता है। यह तप इसी उपलक्ष्य में किया जाता है। इस तप के करने से पूर्वबद्ध कर्मों की वज्र समान श्रृंखलाएँ टूट जाती हैं और नये कर्मों का आश्रव रुक जाता है।
इस तप माहात्म्य के सम्बन्ध में राजा पिंगल का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। वर्तमान में यह तपाराधना बहतायत में देखी जाती है। इस दिन तप न करने वाले आराधक भी जिनालय में पाँच मेरू चढ़ाते हैं। यह अर्पण सामूहिक संघ के साथ भी होता है और वैयक्तिक भी।
पूर्वकाल में रत्नों के मेरू चढ़ाते थे। फिर काल क्रम में सोने और चाँदी के मेरू चढ़ने लगे और वर्तमान में घी के मेरू चढ़ाने की प्रवृत्ति है। कहीं पाँच मोदक भी चढ़ाते हैं। यहाँ पाँच संख्या, पाँच ज्ञान के परिपूर्णता की सूचक है। __तपासुधानिधि (पृ. 163) के अनुसार वर्तमान प्रचलित मेस्त्रयोदशी तप की विधि इस प्रकार है -
यह तप माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन शुरू करके तेरह मास अथवा तेरह वर्ष पर्यन्त (त्रयोदशी के दिन) उपवास करते हुए पूर्ण करें। इस प्रकार इसमें तेरह