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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ... 185 15. परत्रपाली तप
परलोक के लिए यह तप पाल के समान होने से इसे परत्रपाली - तप कहते हैं। यह तप पारलौकिक सुख की कामना से किया जाता है। अतः इस तप के फल से परलोक में सद्गति प्राप्त होती है। इस तप का अधिकारी गृहस्थ माना गया है। इसकी यह विधि बतायी गयी है।
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पंच वर्षाणि वीरस्य, कल्याणकसमाप्तितः ।
उपवासत्रयं
कृत्वाः, द्वात्रिंशदरसांश्चरेत् ।।
आचारदिनकर, पृ. 371 इस तप को दीपावली के दिन से प्रारम्भ करके प्रथम तेला ( निरन्तर तीन उपवास) करें। तत्पश्चात निरन्तर बत्तीस नीवि करें। इस प्रकार पाँच वर्ष तक करने पर यह तप पूर्ण होता है।
कुछ आचार्यों के अनुसार इसमें नीवि के स्थान पर एकान्तर उपवास करने चाहिए। जैन प्रबोध में इस तप के अन्त में पुनः तेला करने का भी निर्देश किया है।
इस तप यन्त्र का न्यास इस प्रकार है
वर्ष
1.
2.
3.
4.
5.
वर्ष - 5, तप दिन - 35, कुल दिन 175
दिन
कार्तिक वदि अमावस्या
कार्तिक वदि अमावस्या
कार्तिक वदि अमावस्या
कार्तिक वदि अमावस्या
कार्तिक वदि अमावस्या
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तप
तेला, फिर 32 नीवि
तेला, फिर 32 नीवि
तेला, फिर 32 नीवि
तेला, फिर 32 नीवि
तेला, फिर 32 नीवि
उद्यापन
इस तप के उद्यापन में हर वर्ष थाल में एक सेर लापसी की पाल बनाकर एवं बीच में सुगन्धित घी से उसे पूर्णकर परमात्मा के आगे रखें। पाँचवें वर्ष के उद्यापन में परमात्मा की बृहत्स्नात्र पूजा रचायें। साधर्मीभक्ति एवं संघपूजा करें।
• गीतार्थ आज्ञानुसार इस तप के दिनों में भगवान महावीर के निर्वाण