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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...183 आचार्य वर्धमानसूरि ने प्रस्तुत तप की पूर्वोक्त विधि ही बतलायी है, केवल उपवास के स्थान पर एकासन का उल्लेख किया है। स्पष्टीकरण के लिए इस तप में प्रतिपदा को एक एकासना करे। दूसरे पक्ष में द्वितीया से दो एकासना करें, तीसरे पक्ष में तृतीया से तीन एकासना करें।
यदि कारणवश कोई तिथि भूल जाएँ, तो पुनः तप का प्रारम्भ करें। इस तरह यह द्वितीय विकल्प भी 120 दिन में पूरा होता है। तृतीय प्रकार
तीसरे विकल्प के अनुसार इस तप में प्रथम पक्ष की प्रतिपदा को एक उपवास, फिर दो पक्षों की दो दूजों के दो उपवास, फिर तीन पक्ष की तीन तीजों के तीन उपवास- इस प्रकार अमावस्या तथा पूर्णिमा के पन्द्रह उपवास करें। अभी वर्तमान में यही विकल्प अधिक प्रचलित है। इसे आम तौर पर 'पखवासा तप' कहते हैं, क्योंकि इसमें पक्ष की प्रत्येक तिथि की आराधना की जाती है।
उद्यापन - इस तप के पूर्ण होने पर बृहद्स्नात्र पूजा करें, जिन प्रतिमा के आगे 120-120 विविध फल एवं पकवान चढ़ाएँ तथा साधर्मीभक्ति एवं संघपूजा करें। • प्रचलित परम्परा में इस तप के दिनों में निम्न क्रियाएँ करनी चाहिएजाप
साथिया खमा. कायो. माला श्री ऋषभस्वामी अर्हते नम: 12 12 12 20 13. लघु पखवासा तप
यह सर्वसुखसम्पत्ति तप का लघु प्रकार है। संघयण हीन एवं दुर्बल मन वाले आराधकों की अपेक्षा यह तप निर्दिष्ट किया गया है। इस तप सम्बन्धी मूल पाठ तो देखने को नहीं मिला है, लेकिन वर्तमान में यह तप लोक प्रचलित है, अत: अर्वाचीन प्रतियों (तपसुधानिधि पृ. 145) के आधार पर इसकी विधि दर्शायी जा रही है। इस तप के विषय में भी द्विविध विकल्प हैं। विधि
प्रथम विकल्प के अनुसार शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त लगातार पन्द्रह उपवास करें। यदि वैसा सामर्थ्य न हो तो दूसरे विकल्प से प्रथम पक्ष की शुक्ल प्रतिपदा को उपवास, दूसरे पक्ष की शुक्ल दूज को एक उपवास, तीसरे शुक्ल