SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...179 रोहिण्यां च तपः कार्य, वासुपूज्यार्चना-युतं। सप्तवर्षं सप्तमासं, उपवासादिभिः परम्।। आचारदिनकर, पृ. 368 विधिमार्गप्रपा के अनुसार यह तप अक्षय तृतीया के दिन अथवा उसके आगे-पीछे जब रोहिणी नक्षत्र हो उस दिन वासुपूज्य भगवान की पूजा पूर्वक प्रारम्भ करें। तत्पश्चात सात वर्ष और सात महीने तक (प्रति माह) रोहिणी नक्षत्र के दिन उपवास तप करें। आचारदिनकर के मतानुसार इस तप में यथाशक्ति उपवास, आयंबिल, नीवि या एकासन कुछ भी किया जा सकता है। उद्यापन- इस तप के सम्पूर्ण होने पर विधिमार्गप्रपा के अनुसार वासुपूज्य भगवान की प्रतिमा बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा करवानी चाहिए। आचारदिनकर के निर्देशानुसार वासुपूज्य भगवान की बड़ी पूजा करवायें, प्रभु पूजा में सोने का अशोक वृक्ष चढ़ायें तथा संघपूजा करें। • गीतार्थ व्यवहार का अनुपालन करते हुए इस तपस्या काल में मुख्य रूप से अरिहन्त पद की आराधना करेंजाप साथिया खमा. कायो. माला श्री वासुपूज्यसर्वज्ञाय नमः 12 12 12 20 10. श्रुतदेवता तप जैनागमों में धर्म दो प्रकार का कहा गया है - 1. चारित्रधर्म और 2. श्रुतधर्म। श्रुतधर्म को श्रुतज्ञान और सम्यग्ज्ञान भी कहते हैं। श्रुतज्ञान की अधिष्ठात्री देवी को श्रुतदेवता कहा जाता है। यह तप श्रुतदेवता की आराधना निमित्त किया जाता है, अत: इसे श्रुतदेवता-तप कहते हैं। इस तप के करने से अगम-अगोचर श्रुत की प्राप्ति होती है। यह आगाढ़ तप गृहस्थ साधकों के लक्ष्य से दिखाया गया है। विधि तहा एगारससु सुक्क, एगारससु सुयदेवया-पूया मोणोपवास जुत्तो सुयदेवया तवो। विधिमार्गप्रपा, पृ. 26
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy