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________________ जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...163 साधु अपने से नीचे के गुणस्थानकों में स्थित देवों की आराधना कैसे कर सकता है? यह तप श्रावकों के लिए ही करणीय होना चाहिए। विधि बृहन्नंद्यावर्त्त-विधि-संख्ययैकाशनादिभिः। पूरणीयं तपश्चोद्यापने तत्पूजनं महत्।। आचारदिनकर, पृ. 373 इस तप में सर्वप्रथम नंद्यावर्त की आराधना के लिए एक उपवास करें। तत्पश्चात सौधर्मेन्द्र, ईशानेन्द्र और श्रुतदेवता की आराधना के लिए तीन आयम्बिल करें। इसके बाद (प्रथम वलय में स्थित) अरिहन्त आदि आठ की आराधना के लिए आठ आयम्बिल करें। ___ तत्पश्चात द्वितीय वलय में स्थित चौबीस जिन माताओं की आराधना के लिए चौबीस एकासने करें। फिर तृतीय वलय में स्थित सोलह विद्यादेवियों की आराधना के लिए सोलह एकासन करें। तत्पश्चात चौबीस लोकान्तिक देवों की आराधना के लिए चौबीस एकासन करें। फिर चौसठ इन्द्र एवं इन्द्राणियों की आराधना के लिए चौसठ-चौसठ एकासन करें। तदनन्तर चौबीस शासन-यक्ष एवं यक्षिणियों की आराधना के लिए चौबीस-चौबीस एकासन करें। फिर दस दिक्पालों की आराधना के लिए दस एकासना करें। फिर नौ ग्रह और क्षेत्रपाल इन दस की आराधना के लिए दस एकासना करें। उसके बाद इन सबकी सामूहिक आराधना के लिए एक उपवास करें। इस प्रकार प्रस्तुत तप में उपवास 1, आयम्बिल 11 और एकासन 264 किये जाते हैं तथा यह तप 277 दिनों में पूर्ण होता है। इसका यन्त्र न्यास इस प्रकार है - तप दिन-277 | नंद्या | सौध| ईशा | श्रुत | प्रथम द्वितीय म | षष्ठ सप्तम अष्टम नवम दशम F P - | वलय वलय वलय वलय वलय वलय वलय वलय वलय वलय
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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