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162...सज्जन तप प्रवेशिका
इस तप में सर्वप्रथम नंद्यावर्त पट्ट की आराधना हेतु उपवास करें। तत्पश्चात धरणेन्द्र, अम्बिका, श्रुत देवी एवं गौतमस्वामी की आराधना के लिए चार आयम्बिल करें। फिर पंचपरमेष्ठी एवं रत्नत्रय की आराधना के लिए आठ आयम्बिल करें। इसी प्रकार सोलह विद्या देवियों की आराधना के लिए सोलह एकासने चौबीस शासन यक्षणियों की आराधना के लिए चौबीस एकासने, दस दिक्पालों की आराधना के लिए दस एकासने, नवग्रह एवं क्षेत्रपाल इन दस की आराधना के लिए दस एकासने तथा चार निकाय के देवों की आराधना के लिए एक उपवास करें। इस तरह उपवास 2, आयम्बिल 12, एकासन 64 कुल मिलाकर 78 दिनों में यह तप पूरा होता है।
इसका तप यन्त्र यह है -
तप दिन-78
| नाम नंद्यावर्त धरणेन्द्र अंबिका श्रुतदेवी गौतम परमेष्ठी | सोलह चौबीस | दस | नवग्रह | चार
| एवं | विद्या | शासन दिक्पाल एवं | निकाय
रत्नत्रय | देविया| यक्ष क्षेत्रपाल के देव | तप | उप.1 आ.1 | आ.1 | आ.1 | आ.1 | आ.8 | ए.16 | ए.24 | ए.10 | ए.10 / उप.1
उद्यापन - इस तप के पूर्ण होने पर बृहत्स्नात्र पूजा करें, उपाश्रय में लघुनंद्यावर्त्त की पूजा करवायें तथा संघ वात्सल्य एवं संघ पूजा करें। 50. बृहन्नंद्यावर्त तप
नंद्यावर्त्त एक प्रकार की स्वस्तिक रचना है जिसका अष्टमांगलिक में समावेश होता है। जो सर्व प्राणियों के हित के लिए हो, वह मंगल कहलाता है। नंद्यावर्त रचना लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों प्रकार का मंगल करती है। इस तप के फलस्वरूप पारलौकिक दृष्टि से तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध होता है और इस लोक में सर्व ऋद्धि एवं सर्व सम्यक्त्वी देवी-देवताओं का आश्रय प्राप्त होता है।
__ आचार्य वर्धमानसूरि ने इसे गृहस्थ एवं साधु दोनों के लिए करणीय बतलाया है जो किसी अपेक्षा से साधुओं के लिए उचित नहीं है। यह तप देवी-देवताओं की आराधना हेतु किया जाता है। शास्त्रानुसार मुनियों का गुणस्थान छठां अथवा सातवाँ माना गया है और देवी-देवताओं का चौथा गुणस्थानक कहा गया है। अत: