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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...161
इस तप में सर्वप्रथम तेला करके एकासन से पारणा करें। तदनन्तर साठ उपवास एकान्तर एकासन के पारणें से करें, फिर अन्त में तीन उपवास करें।
इस प्रकार इसमें 66 उपवास और 62 पारणा कुल 138 दिनों में यह तप पूर्ण होता है।
उद्यापन - इस तप के अन्त में बृहद्स्नात्र-पूजा करें, फिर चाँदी का वृक्ष एवं स्वर्ण की कुल्हाड़ी बनवाकर परमात्मा के समक्ष रखें। उस दिन साधर्मी वात्सल्य एवं संघपूजा करें। यहाँ चाँदी का वृक्ष 158 कर्म प्रकृतियों का एवं कुल्हाड़ी उनके विध्वंस की सूचक है। • जीत व्यवहार के अनुसार इस तप में अरिहन्त पद की आराधना करेंजाप
साथिया खमा. कायो. माला ॐ नमो अरिहंताणं 12 12 12 20 49. लघुनंद्यावर्त तप
जैन परम्परा में अष्टमंगल का गौरवपूर्ण स्थान है। तीर्थङ्कर परमात्मा जब भी विचरण करते हैं उनका प्रत्येक कदम मंगलकारक एवं शुभता का उत्पादक होने से उसके प्रतीक रूप में अष्टमंगल की रचना की जाती है। वह देवकृत रचना उनके अग्रभाग में स्थिर रहती हुई कदमों के साथ आगे-आगे बढ़ती रहती है। उस अष्टमंगल में एक मंगल नंद्यावर्त कहलाता है।
यह तप नंद्यावर्त की आराधना के लिए किया जाता है। जैन परम्परा में नंद्यावर्त का पूजन भी होता है। उसमें नंद्यावर्त्त आकार का यन्त्र निर्मित कर पूजनीक देवी-देवताओं की स्थापना करते हैं। फिर मन्त्रोच्चार के साथ यथायोग्य सामग्री अर्पित करते हुए पूजन विधि की जाती है। .. इस तपाराधना में लगभग देवी-देवताओं की स्थापना के अनुसार ही तपश्चर्या की जाती है। यह तप करने से परलोक सम्बन्धी तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध तथा इहलोक में सर्व देवों का सान्निध्य प्राप्त होता है।
विधि
लघोश्च नंद्यावर्त्तस्य, तपः कार्य विशेषतः । तदाराधन
संख्याभिरूद्यापनमिहादिवत् ।।
आचारदिनकर, पृ. 373