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156...सज्जन तप प्रवेशिका प्रथम विधि
यावन्मुष्टिप्रमाणं, स्याद्गुरुदण्डस्य तावतः । विदधीतैकान्तराश्चोपवासान् सुसमाहितः ।।
आचारदिनकर, पृ. 369 आचारदिनकर के अनुसार इसमें गुरु का दण्डा जितने मुष्टि प्रमाण का हो उतने एकान्तर उपवास करें। इस तप में उपवास की गिनती सभी के लिए समान नहीं होती, क्योंकि सभी आराधकों की मुट्ठी का आकार भिन्न-भिन्न होता है। __उद्यापन – अन्तिम उपवास के दिन गुरु के दण्ड की चन्दन से पूजा करें तथा गुरु को वस्त्र प्रदान करें। दण्ड के समीप अक्षत और श्रीफल रखें। दण्ड की जितनी मुष्टियाँ हों, उस परिमाण में विविध जाति के फल, मुद्रा, पकवान एवं रत्न आदि भी रखें। साधर्मीवात्सल्य एवं संघपूजा करें।
दूसरी विधि - अर्वाचीन प्रति (तपसुधानिधि, पृ. 209) के आधार पर इसमें गुरु के दण्ड को अंगूठे के पर्व से नापें, जितनी मुष्टि की संख्या हो उतने एकाशन करें। उद्यापन में उतनी ही संख्या में मोदक आदि चढ़ायें।
तीसरी विधि - तपसुधानिधि (पृ. 210) के अनुसार इसमें क्रमश: उपवास, आयंबिल, नीवि, एकासन और एक-एक पुरिमड्ढ करने पर एक ओली पूर्ण होती है। इस तरह पाँच ओली करने पर 25 दिनों में यह तप पूर्ण होता है।
• आचार्य प्रणीत परम्परानुसार इस तपश्चरण काल में साधुपद के गुणों की आराधना करनी चाहिए, इससे यह तप श्रेष्ठ फलदायी होता है।
जाप साथिया खमा. कायो. माला ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं 27 27 27 20 44. अदुःखदर्शी तप
जिस तप के करने से सर्व दुःखों का नाश होता है, उसे अदुःखदर्शी तप कहते हैं।
यह तप गृहस्थ उपासकों के लिए करणीय है। इस तप की विधि सर्वप्रथम आचारदिनकर में प्राप्त होती है। अर्वाचीन पुस्तकों में इसके तीन रूप निम्न प्रकार देखे जाते हैं