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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ... 143 33. मेरू तप
इस विश्व में असंख्यात द्वीप - समुद्र हैं। पहला द्वीप जम्बूद्वीप है। हम इसी द्वीप में रहते हैं। इस द्वीप के मध्य में मेरू नामक पर्वत है, वह एक लाख योजन ऊँचा एवं स्वर्णमय है। यह पर्वत 1000 योजन इस धरती के अन्दर रहा हुआ है तथा 99000 योजन धरती के बाह्य भाग में ऊर्ध्वलोक की ओर फैला हुआ है। धरती की समतल भूमि पर इसका विस्तार 1000 योजन का है । ऊपर जाते हुए क्रमशः घटते घटते शिखर भाग पर यह पर्वत एक हजार योजन प्रमाण चौड़ा रह जाता है। यह पर्वत ऊँची की हुई गोपुच्छ (गाय की पूंछ) के आकार वाला है और तीनों लोक को स्पर्श किया हुआ है।
यह पर्वत तीन भागों में विभक्त है। सबसे ऊपर के भाग में चारों दिशाओं में श्वेत स्वर्ण की चार अभिषेक शिलाएँ हैं। इनमें पूर्व और पश्चिम दिशाओं की शिलाओं पर महाविदेह क्षेत्र के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है, उत्तर दिशा की शिला पर भरत क्षेत्र के और दक्षिण दिशा की शिला पर ऐरवत क्षेत्र में जन्म लेने वाले तीर्थङ्करों का स्नानादि - अभिषेक होता है। इस तरह अढ़ाई द्वीप (मनुष्यलोक) में पाँच मेरू पर्वत हैं। इस पर्वत के कारण ही भरत, ऐरवत व महाविदेह क्षेत्र का विभाजन होता है और प्रत्येक तीर्थङ्कर का जन्माभिषेक स्थल होने से पूजनीय है। ये शाश्वत पर्वत हैं इनका कभी ह्रास नहीं होता ।
इस तप के माध्यम से पाँच मेरू की आराधना की जाती है। जिस प्रकार तीर्थङ्करों के स्नात्र-जल के अभिषेक से मेरू पर्वत कृत-कृत्य हो जाता है वैसे ही इस तप को करने से भव्य जीव भी धन्य-धन्य हो जाते हैं। यह तप उत्तम पद की प्राप्ति हेतु किया जाता है और वह सभी आराधकों के लिए सेवनीय है । आचारदिनकर के अनुसार इसकी विधि निम्नोक्त है -
प्रत्येकं पंचमेरूणामुपोषणक एकान्तरं मेरूतपस्तेन, संजायते
पंचकम् । शुभम् ।।
आचारदिनकर, पृ. 362
इसमें पाँच मेरू पर्वत को लक्ष्य में रखकर प्रत्येक मेरू के लिए पाँच-पाँच उपवास एकान्तर पारणे से करें ।
इस तरह पच्चीस उपवास और पच्चीस पारणे मिलकर कुल 50 दिनों में यह तप पूर्ण होता है।