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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप - विधियाँ... 131
कायो.
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साथिया खमा.
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जाप
श्री अशोकवृक्ष तपसे नमः 29. एक सौ सत्तर जिन तप
माला
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यह तप एक सौ सत्तर तीर्थङ्कर परमात्माओं की उपासना हेतु किया
जाता है।
प्रश्न होता है कि अतीतकाल में अनन्त तीर्थङ्कर हो चुके हैं तो फिर यहाँ 170 तीर्थङ्कर कौन से और किस तरह होते हैं? इसका जवाब है कि इस विश्व में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं उनमें अढ़ाई द्वीप मात्र में ही मनुष्य रहते हैं। उस अढ़ाई द्वीप में पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं - 5 भरत, 5 ऐरवत और 5 महाविदेह। प्रत्येक महाविदेह क्षेत्र में 32-32 विजय हैं ऐसे कुल (32 x 5) 160 विजय होते हैं।.
शाश्वत नियम के अनुसार अवसर्पिणी कालखण्ड में दूसरे तीर्थङ्कर के समय तथा उत्सर्पिणी कालखण्ड में तेईसवें तीर्थङ्कर के समय उत्कृष्ट काल आता है। उस वक्त पाँच भरत क्षेत्रों में 5, पाँच ऐरवत क्षेत्रों में 5 तथा पाँच महाविदेह क्षेत्र के प्रत्येक विजय में एक-एक तीर्थङ्कर एक साथ होते हैं। इस तरह 170 तीर्थङ्कर इस पृथ्वीतल पर युगपद् विचरण करते हैं। प्रत्येक कालचक्र में यह परम्परा अनवरत रूप से प्रवर्तित रहती है।
इस तप के द्वारा वर्तमान अवसर्पिणी कालखण्ड में होने वाले 170 तीर्थङ्करों की आराधना की जाती है। इस तपाराधना के प्रभाव से उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन एवं आर्यक्षेत्र में जन्म की प्राप्ति होती है।
यह अनागाढ़ तप सभी आराधकों के लिए अनुकरणीय है। इस तप-विधि के निम्न तीन प्रकारान्तर हैं
प्रथम विधि
सत्तर- सय जिणाणं, सत्तर सयं उववासाइं तवो कीरड जत्थ सो सत्तरसय- - जिणाराहण- तवो।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 29 विधिमार्गप्रपा के निर्देशानुसार इस तप में 170 तीर्थङ्करों की आराधना के लिए 170 उपवास करना चाहिए ।
आचार्य जिनप्रभसूरि ने 170 उपवासादि निरन्तर करने चाहिए या एकान्तर पारणा पूर्वक? इस सन्दर्भ में कोई निर्देश नहीं दिया है, किन्तु वर्तमान में 170