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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...117 20. अष्टमासिक तप
जैन साहित्य के अनुसार प्रथम तीर्थङ्कर के शासन काल में उत्कृष्ट तप एक वर्ष का था, मध्य के बाईस तीर्थङ्करों के शासन काल में उत्कृष्ट तप आठ मास का था और अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर के तीर्थ में सर्वोत्कृष्ट तप छह मास का कहा गया है।
ध्यातव्य है कि तीर्थङ्कर जितना उत्कृष्ट तप कर सकते हैं, उनके शासनवर्ती साधु-साध्वी उससे बढ़कर तप नहीं कर सकते क्योंकि तीर्थङ्कर से बढ़कर उनका सामर्थ्य नहीं होता।
भगवान ऋषभदेव ने कठोरतम एक वर्ष की तपोसाधना की तो उनके तीर्थस्थ साधु-साध्वी उतना ही तप कर पाये। इसी तरह बीच के बाईस तीर्थङ्करों के आचार-विचार समान होने से उन सभी ने अधिकतम आठ मास का तप किया तो उनके शासन काल में सर्वोत्कृष्ट तप आठ मास का ही कहलाया। इसी भाँति छह मासी तप के विषय में भी समझना चाहिए।
आचार्य जिनप्रभसूरि ने प्रस्तुत तप में अष्टमासी तप की चर्चा करते हुए कहा है कि विधि
बावीस-तित्थयरसाहुचिण्णो, अट्ठमासियतवो। चालीसाहिय - दुसय - उववासेहिं ।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 29 भगवान अजितनाथ से भगवान पार्श्वनाथ तक के बाईस तीर्थङ्करों के साधु-साध्वियों द्वारा आचीर्ण यह अष्टमासिक तप दो सौ चालीस उपवासों के द्वारा किया जाता है। - आचार्य जिनप्रभसूरि ने पूर्ववत इस तप की भी औत्सर्गिक विधि का ही निरूपण किया है, किन्तु वर्तमान में उस तरह का संघयण बल न होने से इस तप सम्बन्धी उपवासों को एकान्तर पारणा करते हुए पूरा किया जा सकता है।
उद्यापन - इस तप के उद्यापन में जिस तीर्थङ्कर के आश्रित तप किया हो उसकी स्नात्रपूजा पूर्वक अष्ट प्रकारी पूजा करें तथा 240 मोदक चढ़ायें।
• प्रचलित विधि के अनुसार इस तपाराधना काल में निम्न जाप आदि करने चाहिए