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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...115 18. संवत्सर तप
सामान्यतया एक वर्ष में जो तप किया जाता है, वह संवत्सर-तप कहलाता है। यहाँ संवत्सर-तप से तात्पर्य वर्षीतप नहीं है। आचार्य वर्धमानसूरि ने इस तप का उल्लेख पाक्षिक आदि आलोचना के सम्बन्ध में किया है। उनके मतानुसार वर्ष भर के अन्तर्गत लगने वाले दोषों से मुक्त होने के लिए जो तप किया जाता है, वह संवत्सर-तप कहा जाता है। इस तप के करने से वर्ष भर में किये गये पापों का क्षय होता है। विधि
इसकी विधि बतलाते हुए निर्दिष्ट किया है कि पाक्षिक आलोचना (एक पक्ष में लगे हुए दोषों से निवृत्त होने) के लिए प्रत्येक चतुर्दशी को उपवास करें अर्थात बारह महीनों की चौबीस चतुर्दशियों में उपवास करें। __ चातुर्मासिक आलोचना के लिए तीन चौमासी को दो-दो उपवास करें तथा संवत्सरी (वर्ष भर) की आलोचना के लिए संवत्सरी के तीन उपवास करें। ऐसे कुल मिलाकर तैंतीस उपवास करें।
इस तप के उद्यापन में साधर्मी वात्सल्य तथा संघ पूजादि करना चाहिए। यह मुनियों एवं गृहस्थों के करने योग्य अनागाढ़ तप है।
इस तप का यन्त्र न्यास यह है -
तप दिन 33
वर्ष में 24 पक्ष कार्तिक चातुर्मास में फाल्गुन चातुर्मास में आषाढ़ चातुर्मास में पर्युषण पर्व में
उपवास 24 उपवास 2 उपवास 2 उपवास 2
उपवास 3
• प्रचलित मान्यतानुसार पूर्वोक्त तप दिनों में अग्रांकित जापादि करें
जाप साथिया खमा. कायो. माला संवत्सर तपसे नमः 12 12 12 20