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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...113 इस तप के करने से तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन एवं तीर्थङ्कर पद की प्राप्ति होती है। यह तप साधु एवं गृहस्थ को तीन योगों की एकाग्रता पूर्वक करना चाहिए।
विधि
उपवास-द्वयं कृत्वा, ततः खरस-संख्यया । एकान्तरोपवासैश्च, पूर्ण संघ-तपो भवेत् ।।
आचारदिनकर, पृ. 360 इस तप में सर्वप्रथम बेला करके पारणा करें। तदनन्तर साठ उपवास एकान्तर पारणा से करें। इस प्रकार 62 उपवास एवं 60 पारणा ऐसे कुल 122 दिनों में यह तप पूर्ण होता है।
उद्यापन – इस तप के उद्यापन में यथाशक्ति साधर्मीवात्सल्य एवं संघपूजा
करें।
• प्रचलित विधि के अनुसार इस तपश्चरण में निम्न कायोत्सर्ग आदि करें - जाप
साथिया खमा. कायो. माला ॐ नमो तित्थस्स 62/25 62/2562/25 20 17. संवत्सर तप ____ संवत्सर शब्द वर्ष का सूचक है। एक वर्ष भर के लिए जो तप किया जाता है उसे संवत्सर कहते हैं। वर्तमान में इसी तप को वर्षीतप कहा जाता है। प्रथम तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव ने यह तप किया था। इतिहास कहता है कि प्रभु ऋषभ प्रतिदिन भिक्षार्थ जाते थे, किन्तु पूर्वोपार्जित निकाचित कर्मों के उदय से उन्हें आहार प्राप्ति नहीं होती थी, अत: स्वयमेव उपवास हो जाता था और उस स्थिति में वे समत्वयोग की साधना में तन्मय हुए अपने मनोबल को दृढ़ से दृढ़तर बना लेते थे, इसलिए उनका असहज तप भी सहज बन जाता था।
यद्यपि प्रभु को यह ज्ञात था कि मुझे एक वर्ष तक आहार की प्राप्ति नहीं होगी, फिर भी विषम परिस्थितियों में स्वयं को तोलने एवं अनभिज्ञ भिक्षा-विधि से परिचित करवाने के प्रयोजन से भिक्षाटन करते थे। भगवान ऋषभदेव 400 दिन लगातार निराहार रहे। जब भोगान्तराय कर्म का क्षय हुआ तब हस्तिनापुर