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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...111 द्वितीय रीति
पुण बिआसणे पंचसु पंचमीसु इक्कासणे, तओ पंचसु निव्वीए, तओ पंचसु आयंबिले, तओ पंचसु उववासे कुणंति ति।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 26 लघुपंचम्यां द्वयशनादि, पंचमासोत्तरं तपः कृत्वा, तत्यंचविधं समाप्तौ, समाप्यते मास पंचविंशत्या।
आचारदिनकर, पृ. 359 विधिमार्गप्रपादि के अनुसार प्रथम पाँच माह की शुक्ल पंचमी के दिन बीयासना करें, फिर दूसरे पाँच माह की शुक्ल पंचमी को एकासना करें, फिर तीसरे पाँच माह की शुक्ल पंचमी के दिन नीवि करें, फिर चौथे पाँच माह की शुक्ल पंचमी को आयम्बिल करें एवं पाँचवें पाँच मासों की शुक्ल पंचमी को उपवास करें।
इस प्रकार उक्त रीति से यह तप पच्चीस माह में पूरा होता है। इसे लघु पंचमी-तप कहते हैं। तीसरी रीति के अनुसार
केइ पुण एवं जहन्नं पंचमासाहियपंचहिं वरिसेहिं। मज्झिमं तु दसमासाहिं वरिसेहि। उक्किट्ठ पुण जावज्जीवं ति भणंति।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 26 किसी मत से जघन्यत: यह तप पाँच वर्ष एवं पाँच मास तक उपवास अथवा एकाशन से करे। मध्यम रूप से यह तप दस वर्ष एवं दस मास तक उपवास अथवा एकाशन से करें।
उत्कृष्ट रूप से इस तप की आराधना यावज्जीवन करें।
स्पष्ट है कि यह तप जघन्य से पाँच वर्ष एवं पाँच मास, मध्यम से दस वर्ष एवं दस माह तथा उत्कृष्ट से जीवन पर्यन्त किया जाता है। चौथी रीति के अनुसार
एवमेव तपो वर्ष, पंचकं कुर्वतां नृणाम् । बृहत्पंचमिकायास्तु तपः संपूर्यते किल ।।
आचारदिनकर, पृ. 360