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110...सज्जन तप प्रवेशिका
प्रथम रीति
पंचाम्यां तपस्तत्र, चतुर्मासी श्रावण-भाद्रपद-आश्विनकार्तिक-पौष-चैत्रान्वर्जयित्वा पुरुषो, महिला वा जिनभवने।
आचारदिनकर, पृ. 359 तहा नाण पंचमिं छः अकम्ममासे वज्जित्ता मग्गसिर-माहफग्गुण-वइसाई-जेठ असाडेसु सुक्क-पंचमीए जिणनाइ-पूया-पुव्वं त्यग्गविणि वोसिय-महत्थ-पोत्थयं विहिय पंचवण्ण कुसुमोवयारे अखण्ड कहया-भिलिहिय पसत्थ-सत्थियो घय-पडिपुन-पबोहिय-रत्त-पंच वट्टा पईवो फल-बलि-विहाण-पुव्वं पडिवज्जई। उववासबंभचेर-विहाणेण एवं पडिमासं पंच मास करणे लहुई।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 26 ज्ञान पंचमी-तप श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, पौष एवं चैत्र- इन षट् मासों को वर्जित कर मृगशीर्ष, माघ, फाल्गुन, वैशाख, जेठ, आषाढ़- इन छह महीनों में से किसी भी महीने की शुक्ला पंचमी से शुरू करें।
उस दिन आराधना करने वाला व्यक्ति जिन मन्दिर में जाकर उत्तम जाति के विविध पुष्पों द्वारा परमात्मा की पूजा करें। उसके बाद पुस्तक रूपी ज्ञान की स्थापना कर विधिपूर्वक उसकी पुष्प आदि से पूजा करें। उसके आगे अखण्ड अक्षतों से स्वस्तिक बनाएं तथा उसके ऊपर घृत पूर्ण पाँच बत्ती वाला देदीप्यमान दीपक रखें। उसके समीप फल, नैवेद्य आदि चढ़ाएँ। तत्पश्चात स्वयं के मस्तक पर चन्दन
और अक्षत लगाएं फिर गुरु के पास जाकर शुक्ल पंचमी तप प्रारम्भ करें। गुरु के वरद हस्त से स्वयं के सिर पर वासचूर्ण डलवायें। उसके बाद ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पाँच महीनों तक प्रत्येक पंचमी को उपवास करें।
देह बल की न्यूनाधिकता एवं रुचि की अपेक्षा जैनाचार्यों ने इस तप के कई प्रकार बतलाए हैं। आचारदिनकर में लघु पंचमी और बृहत्पंचमी ऐसे दो विभाग किये गये हैं तथा विधिमार्गप्रपा में इसके तीन प्रकारान्तर बताये गये हैं। वह विवरण इस प्रकार है