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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...91 यवमध्ये प्रतिपदं, शुक्लामारभ्य वृद्धितः । एकैकयोग्रसिदत्त्यो, राकां यावत्समानयेत् ।।2।। ततः कृष्णप्रतिपद, मारभ्यैकैकहानितः । अमावास्यां तदेकत्वे, यवमध्यं च पूर्यते ।।3।। वज्रमध्ये कृष्णपक्षमारभ्य प्रतिपत्तिथिः । कार्या पंचदशग्रास, दत्तिभ्यां हानि रेकतः ।।4।। अमावास्याश्च परतो, ग्रासदत्ती विवर्धयेत् । यावत्पंचदशैव स्युः, पूर्णमास्यां च मासतः ।।5।। एवं मासद्वयेन स्यात्पूर्णं च यववज्रकं । चान्द्रायणं यतेर्दत्तेः, संख्या ग्रासस्य देहिनाम् ।।6।।
आचारदिनकर, पृ. 340,42 यवमध्य चान्द्रायण-तप
यव की तरह जिसका मध्यभाग स्थूल हो तथा आदि और अन्त का भाग पतला हो, वह यवमध्य कहलाता है। वज्र की तरह जो बीच में पतला हो तथा
आदि और अन्त में स्थूल हो, वह वज्रमध्य कहलाता है। यहाँ स्थूलता और हीनता का अभिप्राय दत्ति या ग्रास की बहुलता या अल्पता से जानना चाहिए। पहला यवमध्य चान्द्रायण तप इस प्रकार से करें -
यह तप शुक्लपक्ष की प्रतिपदा. को प्रारम्भ करते हैं। प्रतिपदा (एकम) के दिन एक दत्ति या एक कवल ग्रहण करें, दूज के दिन दो दत्ति या दो कवल ग्रहण करें, तीज के दिन तीन दत्ति या तीन कवल इस प्रकार एक-एक दत्ति या कवल (ग्रास) की वृद्धि करते हुए पूर्णिमा के दिन पन्द्रह दत्ति या पन्द्रह कवल लें। तत्पश्चात कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को पन्द्रह दत्ति या पन्द्रह कवल ग्रहण करें, फिर द्वितीया तिथि को चौदह दत्ति या कवल, तृतीया को तेरह दत्ति या कवल - इस तरह एक-एक दत्ति अथवा कवल (ग्रास) कम करते हुए अमावस्या को एक दत्ति या एक कवल ग्रहण करें- यह यवमध्य चान्द्रायण तप कहलाता है। वज्रमध्य चान्द्रायण तप ___ यह तप कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को प्रारम्भ करते हैं। कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को पन्द्रह दत्ति या पन्द्रह कवल ग्रहण करें, दूज को चौदह दत्ति या चौदह कवल