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________________ 90...सज्जन तप प्रवेशिका आदि करें। 3. चारित्र पद की आराधना में पूर्ववत निरन्तर अथवा एकान्तर से तीन उपवास करें। इस तप के उद्यापन में मुनियों को उत्तम आहार, वस्त्र, पात्रादि का दान दें। इस प्रकार 9 या 18 दिन में यह तप पूर्ण होता है। • जीतव्यवहार के अनुसार इस तप में निम्न जाप आदि करें - तप । साथिया | खमा. लोगस्स | माला ज्ञान तप | ॐ ही नमो नाणस्स | 51 | 51 | दर्शन तप | ॐ ही नमो दंसणस्स | 67 | 67 | 67 | 20 चारित्र तप | ॐ ही नमो चारित्तस्स | 70 70 | 70 | 20 जाप 6. चान्द्रायण तप जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमाँ की कलाओं में वृद्धि और कृष्ण पक्ष में हानि होती है उसी प्रकार यह तप चढ़ते-उतरते क्रम से किया जाता है, अत: इसे चान्द्रायण तप कहते हैं। चन्द्र + अयन इन दो शब्दों के योग से चान्द्रायण बना है। अयन का अर्थ है - पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा लगाना जैसे- चन्द्रमा के द्वारा परिक्रमा लगाते हुए उसकी कलाओं में स्वाभाविक वृद्धि-हानि होती है वैसे ही यह तप वृद्धि एवं हानि के क्रम से किया जाता है। ____ यह तप करने से पुण्य की वृद्धि और पापों का क्षय होता है जो कलाओं के वृद्धित्व और हानित्व गुण को दर्शाती है। इसे साधुओं एवं श्रावकों को आगाढ़ तप के रूप में करना चाहिए। आचार्य हरिभद्रसूरि (पंचाशक, 19/22) के अनुसार यदि यह तप साधु द्वारा किया जाता है तो इसमें निर्दोष क्रिया, निर्मल भाव एवं महारम्भ से रहित होने के कारण मोक्ष फलदायक होता है। यह तप दो प्रकार से किया जाता है - 1. यवमध्य चान्द्रायण और 2. वज्रमध्य चान्द्रायण। विधि चान्द्रायणं च द्विविधं, प्रथमं यवमध्यमं । द्वितीयं वज्रमध्यं तु, तयोश्चर्या विधीयते ।।1।।
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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