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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...89 3. क्षायोपशमिक सम्यक्दर्शन – उपर्युक्त सातों कर्म-प्रकृतियों में से सम्यक्त्व-मोहनीय के सिवाय शेष छह प्रकृतियों के क्षयोपशम से तथा सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाली यथार्थ दृष्टि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। __ अशुभ से निवृत्त होकर शुभ में प्रवृत्त होना सम्यकचारित्र है।
यह तप रत्नत्रय की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है। इस तप के फल से निर्मल ज्ञान, निर्मल बोधि और निर्मल चारित्र की प्राप्ति होती है।
यह आगाढ़ तप साधुओं एवं श्रावकों दोनों के लिए करणीय बतलाया गया है। कुछ आचार्यों ने “ज्ञान-दर्शन-चारित्र तप" को अभिन्न तप के रूप में मान्य किया है तो किन्हीं ने तीनों को पृथक्-पृथक् तप के रूप में स्वीकारा है। कहीं दर्शन को प्रथम और ज्ञान को दूसरे क्रम पर रखा गया है। इस तप के दो प्रकारान्तर हैंप्रथम रीति "तहा अट्ठमतिगेण नाण- दंसण-चरित्ता राहणतवो भवइ।"
विधिमार्गप्रपा, पृ. 26 विधिमार्गप्रपा के अनुसार ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के निमित्त तीन अट्ठम (तेला) करें। इसमें निरन्तर नौ उपवास किये जाते हैं। दूसरी रीति
एकान्तरोपवासैश्च, . त्रिभिर्वापि निरन्तरैः । कार्यं ज्ञान-तपश्चोद्यापने, ज्ञानस्य पूजनम् ।।
आचारदिनकर, पृ. 340 आचार्य वर्धमानसूरि के अनुसार ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की पृथक्-पृथक् आराधना करें।
1. ज्ञान तप की आराधना हेतु निरन्तर अथवा एकान्तर से तीन उपवास करें। इस तप के उद्यापन में श्रुत की भक्ति करें, साधुओं को ज्ञान उपकरण दें, ज्ञान की पूजा करवायें और उसमें छह विगयों से युक्त पकवान चढ़ायें।
2. दर्शन पद की आराधना में भी निरन्तर या एकान्तर से तीन उपवास करें। इस तप के पूर्ण होने पर बृहत्स्नात्र विधि से परमात्मा का स्नात्र करें, जिनप्रतिमा के आगे छहों विगयों के पकवान रखें, मुनियों को अन्न-वस्त्रादि का दान देवें, समकित की छ: भावनाओं का श्रवण करें, जिनमन्दिर का प्रमार्जन