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________________ जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप - विधियाँ...85 3. तीर्थङ्कर केवलज्ञान तप यह तीर्थङ्कर परमात्माओं के ज्ञान का अनुकरण करने वाला अथवा ज्ञान से उपलक्षित होने के कारण इस तप को तीर्थङ्कर केवलज्ञान - तप कहते हैं । इस तप के माध्यम से वर्तमान अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थङ्करों को जिस तप के साथ केवलज्ञान प्राप्त हुआ, उस तप विशेष की आराधना की जाती है, अतः इस तप के फल से विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह तप परिपूर्ण ज्ञान की सम्प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है। यह साधु एवं श्रावकों के करने योग्य आगाढ़ (लगातार श्रेणीबद्ध किया जाने वाला) तप है। इस तप का दूसरा नाम 'तीर्थङ्कर केवलज्ञानोत्पत्ति' है। यह तप द्विविध रीति से किया जाता है। प्रथम रीति अट्टमभत्तवसाणे, पासोसहमल्लिरिट्ठनेमीणं । वसुपुज्जस्स चउत्थेण, छट्टभत्तेण सेसाणं ।। पंचाशक, 19 / 13; प्रवचनसारोद्धार, 44/ 455 • श्री आदिनाथ, श्री मल्लिनाथ, श्री नेमिनाथ और श्री पार्श्वनाथ भगवान ने अट्ठम (तेला) के साथ केवलज्ञान प्राप्त किया, उसके बारह उपवास । • वासुपूज्य भगवान ने एक उपवास के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया, उसका एक उपवास। · शेष 19 तीर्थंकरों ने छट्ठ तप के साथ केवलज्ञान प्राप्त किया, उसके अड़तीस उपवास। इस प्रकार 12 + 1 + 38 51 उपवास और 23 पारणा होते हैं। ऐसे कुल 74 दिनों में यह तप पूर्ण होता है । = यदि बेला या तेला करने का सामर्थ्य न हो तो 51 उपवास एकान्तर एकाशना के पारणा पूर्वक करें, ऐसा करने पर 50 पारणे आते हैं और कुल 101 दिनों में यह तप पूर्ण होता है । पंचाशक प्रकरण (19/8) के अनुसार यदि सात्त्विक जीवों में शक्ति हो तो उत्सर्गत: ऋषभादि जिनों के क्रम से यह तप करना चाहिए। यदि शक्ति न हो तो क्रम के बिना करने में भी कोई दोष नहीं है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि यह तप गुर्वाज्ञा से परिशुद्ध होकर और अनवद्य अनुष्ठान पूर्वक (हिंसा से दूर रहते हुए) करना चाहिए।
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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